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सतपुड़ा की रानी निखर उठती है जब मेघ डेरा जमाते हैं पर्वतश्रृंखला पर। एक दो बरसात के बाद व्ही-फॉल की जवानी लौट आती है। बस सनसेट पाइंट उदास हो देखता रहता है दूर बादलों की धींगा मस्ती। लगता है गीली लकड़ियों को सुलगा दिया है और धुआँ चित्र विचित्र आकृतियों में ढलता उठता जा रहा है ऊपर और ऊपर।
बचपन में अलाव के पास बैठकर धुएँ में कितने चेहरे देख लिया करते थे। वही बादलों की आवा जाही में भी होता था।
बादल नीचे उतर आये थे। कभी भी शुरू हो सकती है बरसात। ढलान से उतरकर रवि चिनार रेस्तरां की तरफ बढ़ने लगा। थकान की वजह से कॉफ़ी की तलब भी जाग रही थी। और भी बहुत कुछ था जो अंदर ही अंदर सुलग रहा था, पिघल रहा था मगर दो दिन में यहाँ का काम पूराकर अमरकंटक पहुँचना है। स्टेट फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में यूँ तो आराम है बस मानसून के दौरान व्यस्तता बढ़ जाती है।
वही कोने वाली खिड़की के पास बैठना अच्छा लगता है रवि को। पहले उसको पसंद आई थी यह जगह। यहाँ से घाटी का खूबसूरत नजारा होता है। तब तो सारे नजारे उस सूरत में सिमटे थे। वो जो भी देखती थी, रवि अपलक देखता था उसको। एक जिद्दी लट जब उसके गालों से छेड़खानी करती थी, जी चाहता था हाथ बढ़ा कर उसे उसकी जगह पर रख दे। लेकिन उस छुअन से जो रंग आते थे उसके चेहरे पर, हाथ कभी न उठ सका था।
सागवान के पेड़ अचानक सूखने लगे थे। सरकार ने एस. एफ. आर. आई को सौंपा था जिम्मा उस मुसीबत से उबारने का। सबसे ज्यादा समस्या पचमढ़ी के आसपास थी। उसी रेस्क्यू टीम का हिस्सा थी एनी। टीएफआरआई की जूनियर साइंटिस्ट, अॉस्ट्रेलियन माँ और भारतीय पिता की संतान। डैडी जंगल के अधिकारी थे और माँ आई थी इंडियन डेसीड्यूअस फॉरेस्ट पर रिसर्च के लिए। पर्णपाती वृक्षों के जंगलों में पतझड़ और बहार का चोली दामन का साथ है। पुरानी पत्तियाँ गिरती हैं नई आती हैं। प्रकृति के इसी खेल में कब कोंपल फूटीं और बदलने लगा रंग सागवान के पेड़ों का, सिल्विया को पता नहीं चला। उस युवा आईएफएस के प्रेम में डूब चुकी थी वो। बिना यह जाने कि उसकी अपनी एक दुनिया पहले से है।
एनी इस दुनिया में आ गई थी। माँ से बिरसे में मिला था उसे जंगलों से लगाव। फॉरेस्ट्री में पीएचडी के बाद ट्रॉपिकल फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट में वैज्ञानिक थी।
जिस जगह माँ की खुशियों पर तुषारपात हुआ था, वहीं आ गई थी जंगल के सूखते सागवानों को बचाने के लिए। हालांकि सिल्विया ने उसे कभी अपने अतीत के बारे में नहीं बतलाया था। न इस जगह की कोई बात पता पती थी एनी को।
अक्सर इस रेस्तरां में वो रवि के साथ बैठती थी। आज भी होना था मगर…..
काश और मगर का कोई विकल्प नहीं है। बस या तो काश है या मगर…..
उन चार महीनों की हर बात दर्ज है। रास्तों पर, सागवानों के तने व पत्तियों पर और इस खिड़की से दिखते बादलों पर।
वैटर ने देखा रवि को। मुस्कुराहट से स्वागत किया और उस जगह बैठते ही गर्मागर्म कॉफ़ी का कप रख दिया सामने।
वही महक थी, वही उष्ण अहसास कप छूने पर जैसा एनी के स्पर्श में होता था।
कप से उठते धुएँ में फिर वही चेहरा बन बिगड़ रहा था। रवि देखता रहा जबतक कप से धुआँ उठता रहा।
कॉफ़ी ठंडी हो गई थी। वैटर ने आकर कहा, सर ! आर यू अॉलराइट…. तबीयत ठीक है आपकी ? मैं दूसरी कॉफ़ी लाता हूँ।
नहीं…. कोई जरूरत नहीं। रवि ने कप उठाकर एक ही घूँट में खाली कर दिया।
सामने घाटी में फिर से बादल धुएँ से उड़ रहे थे। कितने लम्हे उनके साथ उमड़ घुमड़ रहे थे। पापा की चिट्ठी भी जल रही थी। उसका उठता धुआँ उसको व एनी को दूर ले जा रहा था। सिल्विया आंटी ने एयरपोर्ट पर दिया था वो खत उसको। हमेशा के लिए जा रही थीं वो एनी के साथ अॉस्ट्रेलिया।
पापा ने लिखा था, रवि मेरा बेटा है। एनी से उसका रिश्ता नहीं……. आगे पढ़ नहीं सका था रवि। लौटा दिया था खत सिल्विया आंटी को। उस रोज़ भी टेकअॉफ के बाद कितनी तस्वीरें बनी बिगड़ी थीं आसमान में…… ।
परिचय –
नाम :. मुकेश दुबे
माता : श्रीमती सुशीला दुबे
पिता : श्री विजय किशोर दुबे
सीहोर(मध्यप्रदेश)
आरंभिक से स्नातक शिक्षा सीहोर में। स्नातकोत्तर हेतु जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के कृषि महाविद्यालय जबलपुर में प्रवेश। वर्ष 1986 से 1995 तक बहु राष्ट्रीय कम्पनी में कृषि उत्पादों का विपणन व बाजार प्रबंधन।
1995 में स्कूल शिक्षा विभाग मध्यप्रदेश में व्याख्याता। वर्ष 2012 में लेखन आरम्भ। 2014 में दो उपन्यासों का प्रकाशन। अभी तक 5 उपन्यास व 4 कथा संग्रह प्रकाशित। मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच भारत वर्ष द्वारा 2016 में लाल बहादुर शास्त्री साहित्य रत्न सम्मान से सम्मानित।
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