मकानों में बसा है घर,
दीवारों का मकां है ये ।
दीवारों में बसा हूँ मैं,
दीवारों की ये बस्ती है।
खुशबू है मोहब्बत की,
गर दीवारें हो न नफ़रत की ।
कहीं सरहद बनातीं हैं ,
कहीं नफ़रत दीवारें है।
कहीं मंदिर बनातीं हैं,
कहीं मस्ज़िद दीवारें हैं ।
कहीं पर चर्च दीवारें हैं,
कहीं गुरुद्वारा सजातीं हैं ।
कहीं इंसान बंटता है,
कहीं मज़हब दीवारें हैं ।
कहीं आज़ाद पंक्षी है,
तो कहीं बंदिश दीवारें हैं।
नाम-पारस नाथ जायसवाल
साहित्यिक उपनाम – सरल
पिता-स्व0 श्री चंदेलेमाता -स्व0 श्रीमती सरस्वतीवर्तमान व स्थाई पता-ग्राम – सोहाँसराज्य – उत्तर प्रदेशशिक्षा – कला स्नातक , बीटीसी ,बीएड।कार्यक्षेत्र – शिक्षक (बेसिक शिक्षा)विधा -गद्य, गीत, छंदमुक्त,कविता ।अन्य उपलब्धियां – समाचारपत्र ‘दैनिक वर्तमान अंकुर ‘ में कुछ कविताएं प्रकाशित ।लेखन उद्देश्य – स्वानुभव को कविता के माध्यम से जन जन तक पहुचाना , हिंदी साहित्य में अपना अंशदान करना एवं आत्म संतुष्टि हेतु लेखन ।