विचारणीय विषय है…ज्वलंत समस्या का…… ज्वलंत प्रश्न…….
मुझे यकीन है आज हर माता-पिता अपने बच्चों के विद्रोही स्वभाव को लेकर परेशान हैं, और उनके भविष्य को लेकर चिंतित भी..निश्चित तौर पर सभी ने कभी न कभी आत्ममंथन भी किया होगा, कि ऐसा क्यों है??
जो मूल बात और कारण मुझे समझ में आया वो है…..न्यूक्लियर फैमली या एकल परिवार.
चलिए एक पिक्चर की तरह इसे महसूस करते हैं………
हम खुद तो सयुंक्त परिवार से आए है, और संयुक्त न भी हो तो हमारा छोटा सा शहर, आस-पास के लोग सब अपने से होते थे..हम पर नज़र रखने 10-12 आँखें तो होती ही थी. टोकाटाकी हमें भी पसंद नहीं थी अपनी बढ़ती उम्र में, और किसी को भी पसंद नहीं होती. अगर माता-पिता डांट दें तो कोई दूसरा प्यार से हमें मना लेता था. संरक्षण, स्वतंत्रता, बंधन, निगरानी कभी भी साफतौर पर सामने नहीं आता था. आँखों का गुस्सा, प्यार, भौहों की सिकुड़न, बिना शब्दों के ही सब कुछ समझा जाती था क्योंकि इन्हीं इशारों को देख-देख हम बड़े हुए थे.
अब आप न्यूक्लियर फैमली को ले लें….वही चार आँखें…बोलती, डांटती, पीछा करती, समझाती……आखिर बोरियत तो होगी ही, और बोरियत से झुंझलाहट, चिडचिडापन……
हम संयुक्त से निकल कर एकल में आ गए पर आपने कभी सोचा है कि हम जिस संरक्षण में पले हैं उसका भाव हमारे अचेतन में बसा हुआ है. अगर उसे डर कह दें तो भी कुछ गलत नहीं. एकल परिवार में दो लोग दस लोगों की जिम्मेदारी उठाते है. इसी डर और भाव वश हम बच्चों से प्रश्न करते हैं. दिन रात प्रवचन देते हैं, टोकाटोकी भी ये ही भाव करवाते हैं….
अब ज़रा एक परिदृश्य देखिये……..
बच्चा देर से घर लौटता है-
“कहाँ गए थे बता कर नहीं गए??”- भाव “कुछ प्रॉब्लम हो गई तो कहाँ ढूँढने जाएंगे इतने बड़े शहर में”
“किसके साथ गए थे??”- “कितने सारे दोस्त बन गए हैं स्कूल, कॉलेज में, क्या पता कौन सा दोस्त कैसा है??”
“क्या खा कर आ गए”- “कितना कंटामिनेशन है बीमार हो गए तो स्कूल, कोचिंग, डांस क्लास, स्पोर्ट क्लास कौन जाएगा??”
“और अब ये खतरनाक डिवाइसेज़..मोबाइल, टीवी, होम थिएटर आदि आदि- इनने तो बर्बाद ही कर दिया है, आँख पर असर, ब्रेन पर असर, रेस्टलेसनेस……. और फिर चिड़-चिड़, न खेलते हैं, न दो घड़ी धूप में जाते हैं जो बहुत ज़रूरी है. और हम तो धूप में खेल-खेल कर बड़े हुए है…” अब ये सारे डर हमें और बेचैन कर देते हैं. हम और सवाल करते जाते हैं समझाते जाते है. और बच्चे अनावश्यक टोकाटोकी से विद्रोही होते जाते हैं. पर बच्चे समझ नहीं सकते क्योंकि वे इसी युग में पैदा हुए है.
और एक डर तो मैंने अभी बताया ही नहीं…….”अब हम चिर कर चार तो नहीं हो सकते न…दोनों में से कोई एक भी हर समय, हर जगह तो बच्चों के साथ रह नहीं सकता तो अकेले बच्चे घर पर हों तो गैस, गीज़र, चाबी, आदि आदि का डर” …..बार-बार फोन करना, बाहर जाएं तो सही गलत की पहचान पर प्रवचन आवश्यक हो जाता है.
हमारा भूतकाल था हमारा संयुक्त परिवार, वर्तमान है न्यूक्लियर फैमिली पर भविष्य को माइक्रो न्यूक्लियर नहीं बनने देना है.
तो फिर क्या करें……………….??
थोड़ा सा नया ज़माना आप भी अपनाएं, बच्चों के दोस्त बन जाएँ, अपने आप को समझाएं, अपने डर पर काबू पाएं, और ये जो विष बच्चों में भर रहा है उसका काट समय-समय पर पिलाते जाएं अर्थात् धर्म, सत्संग से अच्छी किताबों से, सकारात्मक विचारों से उन्हें जोड़ें, और इसके लिए ज़रूरी सारे साम, दाम, दंड, भेद अपनाएं और अपने क्रिया-कलापों को भी उसी दिशा में ले जाएं. हमें भी बाद में ही समझ में आया था कि हमारे माता-पिता की शख्ती हमारी भलाई के लिए थी, उन्हें भी समझ में आएगा.
यकीनन हमारे माता-पिता ने या हमारी पहले की पीढी ने हमें स्वयं से ज्यादा शिक्षित बनाया था, अगर हम समझदारी नहीं दिखा सकते तो क्या फ़ायदा इस उच्च शिक्षा का.
और ये जो दौर है वर्तमान का दौर है, भविष्य में वक्त के साथ और तेजी से बदलाव होने वाले हैं, हमें उनके साथ भी तो एडजेस्ट करना है……
नाम- श्रीमती मनीषा नेमा
वर्तमान पता-थाणे
राज्य-महाराष्ट्र
शहर-थाणे
शिक्षा- पोस्ट ग्रेजुएट (वनस्पतिशास्त्र)
कार्यक्षेत्र- ट्रांसलेटर (इंग्लिश<>हिंदी)
विधा -दोहा, मुक्तक, छंदमुक्त, हाइकु, सेदोका,चोका, लेख, समसामयिक विषय गद्य
प्रकाशन- वर्तमान अंकुर, पत्रिका काव्य स्पंदन, दैनिक भास्कर,
सम्मान-सर्वश्रेष्ठ लेखन के लिए ऑनलाइन प्रशस्तिपत्र विभिन्न समूहों से, शब्द श्री, काव्य प्रत्यूषा, आदि
अन्य उपलब्धियाँ-………शिक्षिका रह चुकी हूँ, कम्प्युटर प्रशिक्षक, ट्रांसलेटर
लेखन का उद्देश्य-अपने मन के भाव लिखना, समाज में बदलाव लाना
एक मौलिक रचना-शीर्षक सहित कविता क्या है?
मेरे लेख को प्रकाशित करने के लिए मात्रभाषा का बहोत धन्यवाद ..