रूप लावण्य और संस्कारों की धनी रूपा ने जब अपने यौवन में कदम रखा तो उसके मन में अनेक सुनहरे सपने खिलने लगे ।
सदा खिलखिलाती रूपा – अक्सर गुनगुनाती रहती थी – वो सुबह कभी तो आएगी … !
कई बार जानकर भी अनजान बनते हुए मैने उससे पूछा था , इस गाने के पीछे छुपे भावों को पर वह हौले से मुस्कुरा कर टाल जाती ।
कभी कभी कहती – कुछ नहीं भाई । ये पंक्ति मुझे घर की कमजोर परिस्थितियों से जूझने की प्रेरणा देती हैं।
रूपा मुझसे ऐसा कह जरूर देती थी मगर मैं समझता था इसके पीछे छुपा उसका दर्द । जानता था उसके घर के हालात ठीक नहीं । स्वाभिमानी पिता सब कुछ छोड़ – छाड़ कर तंगहाली का जीवन जी रहे थे । कुछ भी काम उन्हें उनकी उच्च शिक्षा के अनुरूप नहीं लगता । दो बेटे पिता की बेरुखी और तंगहाली से परेशान होकर दूसरे शहरों में जा बसे थे । उन्हें घर के हालातों से कोई लेना – देना नहीं था ।
हारकर और अपने सपनों को मारकर रूपा एक अशासकीय संस्थान में काम करने लगी । घर में मां सिलाई – कढ़ाई कर लेती । जिंदगी तो कट रही थी पर अब रूपा की वह खिलखिलाहट धीरे – धीरे गुम होती जा रही थी । हां ,अब भी अक्सर गुनगुनाती जरूर थी – वो सुबह कभी तो आएगी ।
….. और आख़िरकार एक दिन वो सुबह भी आ ही गई जब रूपा दुल्हन बनी अपने ससुराल चली गई । साल भर सब कुछ ठीक ठाक रहा पर ये सुबह , रूपा के की वह सुबह नहीं थी जो उसके जीवन को उजास से भर पाती ।
नियति ने कुछ और ही लिख रखा था रूपा के जीवन में । फिर आई वह अँधेरी रात भी , जिसने ह्रदयाघात से छीन लिया उसके पति को । बज्र सा प्रहार हुआ था रूपा पर । पति के जाने के बाद ससुराल में कितने दिन प्रताड़ित होकर रहती रूपा । वापस आ गई मायके अपने ।
रूपा के मजबूर पिता भी यही चाहते थे । रूपा मायके में रहकर ही पुनः नोकरी करने लगे ताकि घर में मदद मिल सके । उन्हें रूपा की भावनाओं की कद्र हो ऐसा उनके व्यवहार से कभी लगता नहीं था । रूपा भी क्या करती , जाने लगी फिर से काम पर । अब वह न तो गुनगुनाती थी और न ही खिलखिलाती थी । मुझसे भी कम ही बात करती थी ।
आखिर रक्षाबंधन के दिन जब रूपा ने मेरी कलाई पर राखी बांधना चाहा तो मैने पहली बार अपना हाथ पीछे खींच लिया । वह अचकचा गई ।
बोली – भैय्या । ये क्या ।
क्या आपकी यह अभागन विधवा बहन अब राखी बांधने के योग्य भी नहीं रही । बचपन से मैने आपको राखी बांधी है , कभी आपने अपना हाथ नहीं खींचा । फिर आज ये क्यों ? कहते हुए फफक पड़ी थी रूपा ।
अपने सीने से लगाते हुए रुंधे गले से कहा था – मैंने – नहीं रे रूपा । ऐसा सोचा भी कैसे तूने ।
हाँ , रुचना लगाने से पहले आज पहली बार तेरा ये भाई तुझे कुछ देना नहीं बल्कि कुछ मांगना चाहता है । बोल – करेगी अपने इस भाई की इक्षा पूरी ।
वह कुछ कहती , इससे पहले ही मैने कहा – तुझे फिर से शादी करना होगा । पूरा जीवन पड़ा है अभी । मायके में भी ज्यादा दिन नहीं रह पाएगी रूपा। समझदारी से जीवन चलाना होता है। यह जरूरी नहीं कि जो एक बार घट गया वह दुबारा भी घटे । किसी की चिंता मत कर और अपने भविष्य के बारे में सोच ।
यह सुन , भींग गई थी पलकें रूपा की । उसने मेरी कलाई आगे खींची और बांध दिया – रक्षासूत्र ।
यह कहते हुए – वो सुबह भी कभी तो आएगी ही …….और फिर आई एक दिन वह नई सुबह भी जब मंदिर के प्रांगण से विदा हो गई नया संसार बसाने रूपा ।
#देवेन्द्र सोनी , इटारसी