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मुझसे बोले
एक सज्जन
कि
तुम
रुक -रुक कर क्यों बोलते हो?
क्या
हकलाते हो?
मैंने कहा –
तुम भी कहो
रुक-रुक कर,
गर
विरामों को जानते हो….
विरामों को
जानना होता है,
पहचानना होता है,
उसकी तह में उतरना होता है
फिर
निकलना होता है।
विरामों का
‘संप्रेषण’ नहीं जहाँ
वहाँ
‘विचार-सौन्दर्य’ का
अनर्थ है,
विरामों को जाने बगैर
भावों की व्याख्या,
‘व्यर्थ ‘है।
#डॉ प्रतिभा सिंह ‘परमार’राठौड़माखननगर(मध्यप्रदेश)
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