काकरोच

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vijay kumar
डोरबैल क़ी आवाज सुनते ही रसोई से बोली प्रीति, डोर बैल की आवाज़ सुनते ही रसोई से बोली प्रीति,” ममा जरा देखना, रितु ही होगी । कह रही थी कुछ देर में आने को ।” सविता जी ने दरवाजा खोला तो रितु ही थी । ”हलो आंटी कैसी हैं ? कहां है वो नौटंकी ?” रितु की आवाज़ सुन कर रसोई से ही प्रीति चिल्लार्इ, ”अरे किचन में हूं यार । बस दो मिनट बैठ, अभी आर्इ ।” ”हां हां, आ जा । अभी तो कुछ टार्इम है क्लास के लिए ।” रितु अंदर आते हुए बोली । ” कैसी चल रहीं हैं तुम लोगों की क्लासेज़ ?” सविता जी उसके सामने बैठते हुए बोलीं । ”क्लासेज़ तो बिढ़या ही चल रहीं हैं आंटी । बाक़ी तो एक्ज़ाम्स के वक़्त ही मालूम पड़ेगा ।” बोली रितु । दोनों अभी बतिया ही रहीं थीं कि तभी रसोर्इ से प्रीति की चीख़ सुनार्इ दी, ”हाय मम्मा जल्दी आओ ।” दोनों घबरा कर रसोर्इ की ओर भागीं तो देखा प्रीति एक कोने में खड़ी है और स्लैब पर एक काकरोच घूम रहा है । ”भगाओ इसे मम्मा जल्दी । वो काकरोच ।” प्रीति सहमी सी बोली । माथे पर हाथ मारते हुए सविता जी बोलीं, ”हे भगवान ! क्या करुं इस लड़की का ? इतनी बड़ी हो गर्इ और एक ज़रा से काकरोच से ऐसे घबरा जाती है जैसे कोर्इ शेर आ गया हो । क्या करेगी िज़ंदगी में ये ? हमने सोचा पता नहीं क्या आफ़त आ गर्इ ।” रितु ने काकरोच एक कपड़े से उठाया और खिड़की से बाहर फेंकते हुए बोली,” वाह री वीरांगना ! चलें अब ? क्लास का टार्इम भी हो रहा है ।”
दोनों बस स्टाप के लिए निकलीं तो भी रितु की चुहल जारी रही । ”तेरा भी कोर्इ हाल नहीं है । डरपोक कहीं की !” ”अब तू कुछ भी बोल लेकिन क्या करुं ? मुझे काकरोच से बहुत डर लगता है । और तू तो है न बहादुर !” खीजते हुए बोली प्रीति, ”अब सामने भी देख ले । बस आ रही है ।”
जैसे ही बस आर्इ, दोनों चढ़ने के लिए लपकीं । बस कुछ ज़्यादा ही भरी हुर्इ थी । जैसे तैसे दोनों बस में घुसीं और कुछ अंदर तक पहुंचने में कामयाब रहीं । एक कोने में कुछ जगह देख दोनों वहीं खड़ी हो गर्इं । अगले स्टाप पर चार लड़के बस में चढे़ । एक लड़के की नज़र उन दोनों पर पड़ी तो ज़ोर से बोला, ”अरे आगे कहां जाओगे यार, यहीं खड़े हो जाते हैं ।” दूसरा लड़का उसकी हां में हां मिलाते हुए बोला, ”हां यार, यहीं खड़े हो जाते हैं ।” और वो झुंड उन दोनों के बग़ल में खड़ा हो गया । कुछ देर बाद उनमें से एक बेशरमी से बोला, ”यार, आजकल शहर में हरियाली कुछ ज़्यादा ही हो रही है । नहीं ?” दूसरा उन दोनों को घूरता हुआ बोला, ”बात तो ठीक है तेरी ।” और फिर सब बेशरमी से हंसने लगे । वो दोनों चुपचाप खड़ीं रहीं । कुछ देर बाद एक लड़का रितु के करीब होने लगा । रितु उसके इरादे समझ कर प्रीति के करीब सिमटने लगी कि तभी लड़का रितु पर गिरने लगा । प्रीति उसकी हरकतें देख गु़स्से से चिल्लार्इ, ”ये क्या कर रहे हो ? सीधे खड़े नहीं रह सकते क्या ?” लड़का फिर बेशरमी से बोला, ”अरे मैडम, बस में झटके लग रहे हैं तो इसमें मेरी क्या ग़लती? आप तो यूं ही बिगड़ रहीं हैं ।” ”जानती हूं कैसे झटके लग रहे हैं और किसे लग रहे हैं । सीधे खड़े रहो इनसान बन कर……….. ।” प्रीति बोलने वाली थी आगे कि रितु ने टोक दिया, ”छोड़ न ! क्यों इनके मुंह लगती है ? जाने दे ।” अभी कुछ ही पल हुए होंगे कि उनमें से एक लड़का रितु पर गिरा । इस बार प्रीति से रहा नहीं गया और बस में एक ”चटाक” की आवाज़ गूंजी । वो लड़का अपना गाल सहलाने लगा । एक लड़का आगे बढ़ कर कुछ बोलने को हुआ कि प्रीति ने उसे भी एक जड़ दिया । ”इतनी देर से देख रही हूं मैं तुम लोगों की हरकतें । ये कुछ बोल नहीं रही तो कुछ भी मनमानी करोगे क्या? सर पर ही चढ़े जा रहे हैं ।” उसका ये रुप देख कर बाकी के लड़के भी सहम गए । अन्य यात्रियों में से भी कुछ आवाज़ें आने लगीं । ये सब देख लड़कों ने भी खिसकने में ही भलार्इ समझी और अगले स्टाप पर ही उतर गए । रितु भौंचक्की सी प्रीति को देखते हुए बोली, ” अरे बाप रे ! मुझे नहीं मालूम था कि तुझमें इतनी हिम्मत है । कहां तो तू एक काकरोच देख कर घबरा जाती है और कहां चार-चार लड़कों से अकेले ही भिड़ गर्इ । मैं तो डर गर्इ थी बाबा ।” प्रीति मुस्कुराते हुए बोली,” दुनिया भरी पड़ी है ऐसे काकरोचों से । उन काकरोचों से डर कर काम चल सकता है लेकिन समाज के इन काकरोचों से डरने से काम नहीं चलेगा । इनको तो इनकी जगह दिखानी ही पड़ेगी ।”

प्रमाणित किया जाता है कि संलग्न रचना पूर्णतया मौलिक, स्वरचित व अप्रकाशित है और ये रचना या कोर्इ भी अंश कहीं से भी नहीं चुराया गया है।

#विजय कुमार
शहर करनाल, हरियाणा
जन्म तिथि 15 अगस्त 1973
शिक्षा बी.ए. एलएल.बी
कार्यक्षेत्र सरकारी कर्मचारी
विधा कहानी
प्रकाशित पुस्तक लघु कथा संग्रहिका ”इंसाफ”
एक कहानी पर एक लघु फिल्म निर्माणाधीन
एक संघर्षरत कथाकार जो अभी सीखने की प्रक्रिया से गुज़र रहा है और स्थापित होने का प्रयास कर रहा है ।

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