बचपन से सुनते आ रही थी राधा – भोगना ही पड़ता है सबको अपना कर्मफल। माँ से सुना , दादी से सुना , नानी से सुना और तो और पिता से भी अक्सर यही सुनती पर समझ कुछ न पाती।
अभावों में गुजर – बसर करते हुए खेलने कूदने की उम्र से ही घर के कामों में हाथ बंटाती । अपनी सहेलियों के संग स्कूल जाने के सपने देखना उसे भाता था लेकिन उसका यह सपना पूरा न हो सका ।
तंगहाली ने उसे भी अपनी अनपढ़ माँ की तरह ही आस पड़ोस के घरों में काम करने को मजबूर कर दिया । जहां वह काम करती वहां उसकी ही उम्र के बच्चों को लिखते पढ़ते देख मन मसोस कर रह जाती ।
भीगी पलकों को पोंछकर भगवान से पूछती – ये सबकी किस्मत अलग – अलग क्यों है ? आखिर उसने ऐसे कौन से कर्म किए हैं जो उससे मेहनत मजूरी करा रहे हैं ? शिक्षा से वंचित कर रहे हैं ? लेकिन कोई जवाब न पाकर फिर अपने काम में जुट जाती।
किशोरावस्था तक आते – आते पिता ने पास ही के गांव में ब्याह दिया उसे । लड़का तिकड़मी था । गुजर हो जाए इतना कमा लेता था पर था पियक्कड़ । कुछ दिन तो ठीक ठाक निकले फिर हालात जस के तस । वह समझ ही नही पा रही थी कि आखिर उसने कौन से ऐसे कर्म किए हैं जो उसे खुशहाल जिंदगी जीने नही दे रहे । रह रह कर वह अपनी किस्मत को दोष देती पर उसे संतोष नही मिलता ।
वह जानना चाहती थी – कर्मफल के इस रहस्य को । उसकी बुद्धि जितना चलती , उतना वह सोचती पर हल नही मिलता। इसी उहापोह में समय बीतता गया और एक दिन राधा ने घर में ही सुंदर सी बेटीे को जन्म दिया। बेटीे के आने से वह सब कुछ भूल गई । उसे अपनी जिंदगी के अभाव बेमानी लगने लगे । अब उसका लक्ष्य बेटीे का भविष्य था जिसे लेकर वह चिन्तित जरूर थी पर दुनियादारी ने उसे इतना तो समझा ही दिया था कि जीवन में पढ़ाई लिखाई बहुत जरूरी है भले ही इसके लिए माता पिता को अतिरिक्त मेहनत मजूरी करना पड़े । उसने मन ही मन संकल्प ले लिया अब से वह खुद भी पढ़ेगी और बेटी की पढ़ाई के लिए भी धन संचय करेगी। जब यही संकल्प उसने अपने पति के सामने दोहराया तो वह भी राधा से सहमत हुए बिना नही रह सका।
उसने वादा किया – अब ताड़ी नही पियेगा और पैसे जोड़ेगा ।
उसने कहा – हम ईमानदारी से अपना कर्म करेंगे जिसका फल होगा हमारी पढ़ी लिखी बेटी।
मुस्कुराते हुए राधा बोली – हां जी । अब यही है हमारा कर्म फल ।
#देवेन्द्र सोनी , इटारसी