कर्त्तव्य पर जनता …!

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tarkesh ojha

बैंक में एक कुर्सी के सामने लंबी कतार लगी है। हालांकि,बाबू अपनी कुर्सी पर नहीं है। हर कोई घबराया नजर आ रहा है। हर हाथ में तरह-तरह के कागजों का पुलिंदा है। किसी को दफ्तर जाने की जल्दी है,तो कोई बच्चे को लेने शाला जाने को बेचैन है। इस बीच अनेक बुजुर्गों पर नजर पड़ी,जो चलने-फिरने में भी असमर्थ हैं,लेकिन परिवार के किसी सदस्य का हाथ थामे बैंक के एक कमरे से दूसरे कमरे के चक्कर लगा रहे हैं। उन्हें लेकर आए परिवार के सदस्य झुंझलाते हुए सहारा देकर उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जा रहे हैं। कई बुजुर्ग किसी तरह धीरे-धीरे बैंकों की सीढ़ियां चढ़-उतर रहे हैं। प्रबंधक के कक्ष के सामने भी भारी भीड़ है,हालांकि वे कक्ष में मौजूद नहीं है। हाथों में तरह-तरह के कागजात लिए हर आगंतुक उनके बारे में पूछ रहा है,लेकिन जवाब में `साहब नहीं है…` का रटा-रटाया जवाब ही सुनने को मिलता है। शक्ल से कारोबारी नजर आने वाले एक सज्जन हाथ में एक पैकेट लिए इधर-से-उधर घूम रहे हैं। उनकी समस्या यह है कि,बैंक की ओर से उन्हें जो क्रेडिट कार्ड मिला है,उसमें उनका नाम गलत मुद्रित हो गया है। इसे सही कराने के लिए वे इस टेबल से उस टेबल के चक्कर लगा रहे हैं। आखिरकार कतार वाली कतार के सामने वे बाबू आकर अपनी कुर्सी पर बैठे तो ऐसा लगा मानो हम घोटाले में फंसे कोई राजनेता हों,जिन्हें सीबीआई या ईडी जैसी संस्थाओं के समक्ष पेश होना पड़ रहा है। `अब अंगूठा ही आपका बैंक होगा…`,जैसे आश्वासन पर मैंने बैंक में खाता खोला था,लेकिन यहां तो हालत घोटालेबाज नेताओं जैसी हो गई है। खैर बाबू के कुर्सी में बैठने से कतार में खड़े लोगों की बेचैनी और बढ़ गई। सब देश में पारदर्शिता व स्वच्छता लाने तथा राष्ट्रीय विकास में अपना योगदान देने पहुंचे थे। निश्चित समयावधि में बैंक खाते को `आधार` से लिंक कराने के अपने महती दायित्व से छुटकारे के लिए बेचैन थे। कुर्सी पर बैठे रहकर कागजों का बारीक विश्लेषण करते बाबू को देख कुख्यात `इंस्पेक्टर राज` की याद ताजा हो आई। वह दौर कायदे से देखा तो नहीं,लेकिन अनुमान लग गया कि काफी हद तक ऐसा ही रहा होगा। अपनी बेटी के साथ कतार में खड़ी एक दक्षिण भारतीय प्रौढ़ महिला की बारी आई। उस महिला का बैंक में संयुक्त खाता था,जिसमें अब विवाहित हो चुकी एक बेटी का नाम भी दर्ज थाl शादी के बाद उपनाम बदलने से वह मुसीबत में फंस गई थी,क्योंकि `आधार` में दर्ज नाम से खाते का नाम मिल नहीं रहा था। बाबू बोला…`बेटी कहां है…`। महिला ने जवाब दिया…`जी उसकी शादी तामिलनाडु में हो चुकी है…जो यहां से करीब एक हजार किलोमीटर दूर है। वह कैसे आ सकती है!` बाबू ने सपाट जवाब दिया…`नहीं उसे आना ही होगा।महीने के अंत तक प्रथण श्रेणी मजिस्ट्रेट के समक्ष शपथनामा देकर उसे बैंक में जमा करना होगा,अन्यथा खाता बंद हो जाएगा।` इससे महिला बुरी तरह से घबरा गई। उसने बताया कि,जी इन दिनों वह नहीं आ सकती,क्योंकि…।` इसके आगे वह कुछ नहीं बोल पाई। इस पर बाबू का जवाब था…`तो मैं क्या करूं…।` दूसरे की बारी आई तो वह और ज्यादा परेशान नजर आय़ा। उसके `आधार` में उसके नाम के साथ यादव उपनाम जुड़ा था,जबकि पुराने प्रपत्रों में अहीर…। बाबू ने उसके भी कागजात यह कहकर लौटा दिए कि,आपके `आधार` का बैंक खाते से लिंक नहीं हो सकता। जाइए प्रथम श्रेणी मजिस्ट्रेट की अदालत से शपथपत्र बनवाइए। इस दो टूक से उस बेचारे की घिग्गी बंध गई। वह लगभग कांपते हुए बैंक की सीढ़ियां उतरने लगा। कतार में खड़े लोगों की बारी आती रही,लेकिन अमूमन हर किसी को इसी तरह का जवाब मिलता रहा। यह दृश्य देख मुझे बड़ी कोफ्त हुई,क्योंकि इस प्रकार की जिल्लतें झेल रहे लोगों का आखिर कसूर क्या है। क्या सिर्फ यही कि उन्होंने बैंक में अपना खाता खोल रखा है। फिर उनके साथ चोर-बेईमानों जैसा सलूक क्यों हो रहा है। क्या बैंक खाते को `आधार` से लिंक कराने की अनिवार्यता का पालन इतने दमघोंटू और डरावने वातावरण में करना जरूरी है। देश में लाखों की संख्या में लोग ऐसे हैं,जिनके प्रमाण पत्रों में विसंगतियां है। किसी गलत इरादे से नहीं,बल्कि अशिक्षित पारिवारिक पृष्ठभूमि या समुचित जानकारी के अभाव में। फिर उस घोषणा का क्या,जिसमें कहा गया था कि प्रमाण पत्रों का सत्यापन उच्चाधिकारियों से कराना अब जरूरी नहीं होगा। इसके लिए स्वपत्रित या स्वयं सत्यापन ही पर्याप्त होगा,लेकिन यहां तो चीख-चीखकर यह कहने पर कि `यह मैं हूं…` कोई सुनने को तैयार नहीं हूं। अपनी पहचान साबित करने के लिए अदालत का चक्कर काटने को कहा जा रहा है। मुझे लगा-यह राष्ट्रीय विकास में योगदान देने को `कर्त्तव्य पर जनता` यानी `पब्लिक अॉन डयूटी` है…l 

  #तारकेश कुमार ओझा

लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं | तारकेश कुमार ओझा का निवास  भगवानपुर(खड़गपुर,जिला पश्चिम मेदिनीपुर) में है |

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