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दुखों के वन में
ख़ुशी की गोरैया आती,
खिड़की की बारीक़ जाली से
देखती हैं घर की दीवारों में,
रंगीन चित्रों पर जब
काले साए,
एक पल तो सहम जाती है
अपने पंखों में छिप जाती है,
प्रयास करती है
उड़ जाने को,
खुले नीले अम्बर में
पर नहीं
कहती है खुद से,
अभी काम अधूरा है
घर में दुखों का जो डेरा है,
हिम्मत मुझे जुटानी होगी
घर में खुशियाँ फिर लानी होगी,
पंख खोलकर तो देखूँ
ह्म्म्म..
दिखाई दे रही है
रौशनी एक छेद से आती हुई,
अरे देखो
फैल गई ज़मीन पर
बिखराई हुई
लो मैं भी शामिल हो लेती हूँ,
अंधकार से उजाले की तरफ
बढ़ जाती हूँ
कोई तो होगा,
जो मुझे देख लेगा
अपने आँचल में मुझे
समेट लेगा।
आओ देखो मुझको
मैं तुम्हारे भीतर में हूँ,
दुख है जहाँ
वहीँ मैं भी हूँ।
जब जब पुकारोगे तुम
दौड़ी चली आऊँगी,
पास तुम्हारे।
#कल्पना भट्ट
परिचय : पेशे से शिक्षिका श्रीमती कल्पना भट्ट फिलहाल भोपाल (मध्य प्रदेश ) की निवासी हैं। 1966 में आपका जन्म हुआ और आपने अपनी पढ़ाई पुणे यूनिवर्सिटी से 1984 में बी.कॉम. के रुप में की। विवाह उपरांत भोपाल के बरकतुल्लाह विश्वविद्यालय से बी. एड.और एम.ए.(अंग्रेजी) के साथ एलएलबी भी किया है। आप लेखन में शौकिया तरीके से निरंतर सक्रिय हैं।
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