संघर्ष करता,जूझता परिवार मार्कण्डेय गोत्रीय। जीवन को गति प्रदान करने के लिए मास्टरी कर सुकून महसूस कर रहा था।
परिवार में ख़ुशी की लहर दौड़ गई थी,क्योंकि चन्द्रशेखर जी के यहाँ दमयंती ने जन्म लिया था। संघर्षरत परिवार दमयंती के आने से प्रसन्न हो गया। कन्या जल्द ही बड़ी होती है, सो दमयंती भी बड़ी होती गई व माता-पिता की परिस्थितियों को भाँपकर घर सम्भालने लगी। प्रभु जब ख़ुशी देता है, तो बहुत देता हैl दमयंती को एक भाई और एक बहन का सहारा और मिल गया l दोनों भाई-बहन दमयंती में ही अपनी माँ को देखते थे,क्योंकि माता-पिता नौकरी पर चले जाते तो,दमयंती ही इनका ख्याल रखती थी।
बच्ची जब विवाह योग्य होती है,तब माता-पिता की चिंता बढ़ जाती है,लिहाजा चन्द्रशेखर जी भी चिंतित थे। इसी बीच दमयंती ने ११ वीं कर ली ,व बी.ए. की पढ़ाई करने लगी। सबको नौकरी के लिए आवेदन करते देख दमयंती ने भी मास्टरी का याने उप शिक्षक का आवेदन कर परीक्षा दी,और चयन भी हो गया। इससे दमयंती व परिवार प्रसन्न हो गया।
दूरस्थ ग्रामीण क्षेत्र में पदस्थापना हुई। सुबह से घर का काम निपटा इंदौर लाइन पैसेंजर ट्रेन पकड़ स्कूल साढ़े दस बजे जाती और शाम साढ़े ५ बजे घर आती l आकर अपना घर का काम बिना थके निपटाती। प्रतिदिन की यही दिनचर्या हो चुकी थी दमयंती की।
इधर चन्द्रशेखर जी अपनी बच्ची का प्रस्ताव लेकर उपमन्यु गोत्रीय परिवार के यहाँ पहुंचे। सौहार्दपूर्ण चर्चा में अमृत जैसी विचारधारा वाले अमृत जी ने कहा-हमारा लड़का तो बी.कॉम.,
एलएलबी है और अभी बेकाम है। चन्द्रशेखर जी बोले-आप चिंता न करें, हमारी बच्ची कमा रही है। वह बहुत ही किस्मतवाली है, उसके आते ही सब शुभ ही शुभ होगा। दोनों परिवारों के बीच हां होते ही चन्द्रशेखर व अमृत जी गले मिले,और धूमधाम से दोनों ने दमयंती व सत्यव्रत की सगाई कर दी।
दमयंती ने अपने पिय को देखा,पिय ने दमयंती को देखा। आँखों-आँखों में ही दोनों ने विश्वास जताया। लगभग एक वर्ष तक सगाई रही। इस एक वर्ष में दोनों ने कई सारे सपने देखे। सत्यव्रत ट्रेन आने पर पहुँच जाता,व पीछे-पीछे घर तक छोड़ने जाता l यही क्रम चलता रहा। दमयंती की सखी-सहेली कहती-देख तेरा आशिक मंगेतर आ गया। दोनों के बीच विश्वास,प्रगाढ़ हो गया था। फिर वह दिन भी आ गया,जब शहनाइयां बज उठी। बारात चन्द्रशेखर जी के द्वार पहुँच गई।लजियाती हुई,लग्नमण्डप में दमयंती आ गई। स्त्रियों में सत्यव्रत के मतकमाऊ होने व दुबलेपन पर भी कटाक्ष हुआ, किन्तु दमयंती के घूर के देखने पर सब सकपका गई। इस घटना से सत्यव्रत दमयंती का होकर रह गया। पंडितों के उद्घोष के साथ ही दोनों के लग्न लग गए,यानि दो दिल एक जिस्म हो गए।
इसके बाद बारात बिदा की,व दमयन्ती अपने नए घर में यानि ससुराल में प्रविस्थ हुई,जहाँ सभी ने उत्साह से उसका स्वागत किया। दमयंती को दूसरे दिन ही देवरानी मिल गई। यानि, दोनों शादियां एकसाथ हुई।
समय का चक्र चलता रहा। दमयंती के आने के बाद से ही सत्यव्रत को एक के बाद एक नौकरी मिलती गई। सभी कार्य शुभ होने लगे। सत्यव्रत ९० किमी दूर आना-जाना करने लगा। सुबह जल्दी उठ सत्यव्रत के साथ ही अपना डिब्बा भी बनाकर,संयुक्त परिवार का खाना बनाना व फिर अपनी नौकरी के लिए भागते हुए पैसेंजर ट्रेन दमयंती पकड़ती व नौकरी स्थल पर पहुँचती। यही दिनचर्या बन गई थी सत्यव्रत व दमयंती की।
घर-घर की कहानी,सो वही यहाँ भी..शिकवा-शिकायत l दमयंती काम नहीं करती,पूरी रोटी नहीं बनाती, नौकरी पर चली जाती है। यह सब सुनकर पति अपनी पत्नी को हक से
डांटता,मार भी देता,किन्तु अच्छे संस्कार लिए दमयंती उफ़ तक नहीं करती, न ही माता-पिता को कहती। उसके इसी गुण ने पति को जीत लिया था। तकलीफों को सहती हुई कई बार तनाव में ट्रेन से गिरते-गिरते बची। तब प्रभु ने खुशियां दी और दमयंती को तीन पुत्रों की माँ बना दिया। संयुक्त परिवार में नौकरी करते हुए परिवार के हृदय में जगह बनाना बड़ा मुश्किल होता है,किन्तु दमयंती ने ऐसा कर दिया था। बच्चे भी धीरे-धीरे बड़े होने लगे।
एकसाथ पांच लोग छोटी गाड़ी (हीरो मैजेस्टिक)पर बैठ जब निकलते तो,चिर-परिचित देखते ही रहते।
दस साल बाद दमयंती के सहयोग से रामनगर में स्वयं का मकान बन गया था। संयुक्त परिवार हो व चिक-चिक न हो,ऐसा सम्भव नहीं। रोज की अशांति से अच्छा शान्ति का मार्ग अपनाना सो सत्यव्रत भी दमयंती व बच्चों को लेकर स्वयं के मकान में जा जिंदगी चलाने लगा। एक लोटा-गिलास से दमयंती ने गृहस्थी चालू की। समस्याओं से निपटते हुए बच्चों को स्कूल भेजना,छोटे को लादकर स्कूल ले जाना,वापिस लाना,दोनों का कार्य बन गया था।दमयंती बिना रूके,बिना टूटे,बिना झुके अनवरत नौकरी करती रही और परिवार को सम्मानजनक स्थिति में खड़ा कर दिया। इसी बीच दमयंती के गले का आपरेशन कर गठान निकाली गई ,फिर हर्निया,फिर बड़ा आपरेशन..। सबकी जांच हुई और रिपोर्ट शून्य रही।
इधर बड़ा बच्चा जवाँ हुआ,उसकी शादी दमयंती ने धूमधाम से की,लोग देखते ही रहे। यह ख़ुशी ज्यादा दिन नहीं रही। तीसरे नम्बर के बच्चे मोगी का भोपाल में एक्सीडेंट हो गया।
वो काफी दिन तक वेंटिलेटर पर रहा,व प्रभु की कृपा से लौट कर आ गया।
इधर दमयंती को भी जटिल रोग ने घेर लिया था। सत्यव्रत के भी एक्सीडेंट हुए। यानि,सत्यव्रत के सब गृह जैसे प्रतिकूल हो। तब भी दमयंती जटिल रोग से ग्रसित होने के बावजूद दृढ़ता से मौत से लड़ती रही।
वहीँ जिस ख़ुशी से बड़े बच्चे की शादी की थी,वह ख़ुशी मिटटी में मिल गई। बहू ने कभी घर को अपना घर समझा ही नहीं।दोनों में प्रेम था नहीं,एक ऐसा बन्धन,जैसे थोपा गया हो प्रतीत हो रहा था। दमयंती इस चिंता व छोटे बच्चे की चिंता में अपना इलाज भूल गई,तो सब अनियमित हो गया l सत्यव्रत के भोलेपन की चिन्ता,वरण के विवाह की चिंता और इन सभी चिंताओं के साथ दमयंती कमजोर होती चली गई। आयुर्वेदिक,पूजा-पाठ सब किया,किन्तु सब बेकार गया।दमयंती ने अपने दर्द का अहसास परिवार को नहीं होने दिया, सचमुच दमयंती देवी ही थी।
दमयंती की कर्तव्यपरायणता से उसके कार्यालय के लोग भी प्रसन्न रहते थे,परन्तु दमयन्ती की हालत देख वो उदास हो गए थे।
ऐसे में चिकित्सक ने छ से आठ माह का समय दे दिया था।
कमजोर होने से बीस खून की २२ बोतल चढ़ी। सत्यव्रत के पास आज छोटी गाड़ी नहीं बड़ी थी,दोनों साथ में ही जाते आते थे,लेकिन अब दो-तीन महीनों से सत्यव्रत अकेला ही जा आ रहा था l दमयंती बिस्तर पकड़ चुकी थी। बच्चों ने सेवा में कोई कसर नहीं रखी थी,यह बात दमयंती भी जानती थी। महीने गुजरते गए। फिर वह अंतिम महीना मई २०१७ भी आ गया,इस महीने का अंतिम दिन १२ मई का काल ग्रसित समय रात्रि ११ बजे दमयंती ने चिकित्सक के यहां इशारे से जाने से मना कर दिया।
सत्यव्रत तथा बच्चे पास ही बैठे थे l अचानक दमयंती उठी, हाथ-पैरों में तनाव,खिंचाव,आँखों का घूमना,लम्बी श्वांस लेना,परिवार को देख लेना व निढाल हो जाना..सबकुछ खत्म l बन्द हुई आँखें,खेल खत्म हुआ,ये जिंदगी है जुआ..। आग की तरह नाते-रिश्तेदारों,मित्रों में खबर फैली कि,दमयंती नहीं रही l जिसको जैसा समय मिला,सब आ गए। सत्यव्रत बच्चों का रो-रोकर बुरा हाल था।
अंतिम सफर में भी वह ऐसी लग रही थी जैसे नई-नवेली दुल्हन। बच्चे,पति बेहाल। चाहत रखने वाले लोंगों की भीड़, पतिव्रता सुहागन के अंतिम दर्शन को तत्पर लोग। काँपते हाथों से अश्रु लिए सत्यव्रत ने एक चुटकी ले दमयंती की सिन्दूर से मांग भर दी। मानो दमयंती कह उठी-सुहागन भेजने हेतु धन्यवाद।
और अंतिम सफर चालू,दमयंती को पति-बच्चों ने कांधा दिया,उठाते बोले-राम बोलो भाई राम। अंतिम यात्रा चालू हुई तो मुक्तिधाम पर ही रूकी,जहाँ शरीर अग्नि के माध्यम से पंचत्त्व में मिलकर मुक्त हो जाता है। दमयंती के मुख में परिवार के सदस्यों द्वारा अंतिम बार पानी डाला गया। प्रणाम किया। तब तक नाते-रिश्तेदारों,गणमान्यों ने लकड़ी-कण्डे जमा अंतिम शयन बिस्तर तैयार कर दिया। दमयंती को उठाकर सुला दिया। बड़े बच्चे जितेश ने हाथ में अग्नि ले परिक्रमा कर माँ दमयंती को अग्नि के हवाले कर दिया।अग्नि भी जैसे सुहागन को पाकर खुश हो गई। अल्प समय में ही दमयंती का पार्थिव शरीर अग्नि की लपटों के बीच पंचतत्व में विलीन हो गया। पति,अपनी पत्नी को तो,बच्चे अपनी माँ को अग्नि में देखते रहे।
दमयंती की सोच में वापिस घर कब आ गए,पता ही नहीं चला। वो सारी झंझटों से मुक्त हो गई थी मुक्तिधाम पर। घर आकर पति ने अलमारी खोली,उसमें एक पत्र मिला-जिसमें लिखा था-ऐ जी,न रोना l आपको भगवान ने मुझे दिया, भगवान ने बुला लिया। तुमने और मेरे प्यारे बच्चों ने बहुत प्यार दिया। तुम्हें व बच्चों को कैसे भुला पाऊँगी। तुम्हारे आवाज देने पर दौड़ी चली आऊँगी। तुमसे कैसे नाता तोड़ूंगी, सात जन्मों तक तुमसे नाता जोड़ूंगी। वह आगे और पढ़ता कि,आंसू चिट्ठी पर गिरे,सत्यव्रत रोते हुए बोला-तुम ही मेरा दम हो दमयंती,तुम ही मेरी ज्योति हो। मेरे लिए,हम सबके लिए तुमको आना ही होगा। (समाप्त)
परिचय : कक्षा 8 वीं से ही लेखन कर रहे सुनील चौरे साहित्यिक जगत में ‘उपमन्यु’ नाम से पहचान रखते हैं। इस अनवरत यात्रा में ‘मेरी परछाईयां सच की’ काव्य संग्रह हिन्दी में अलीगढ़ से और व्यंग्य संग्रह ‘गधा जब बोल उठा’ जयपुर से,बाल कहानी संग्रह ‘राख का दारोगा’ जयपुर से तथाबाल कविता संग्रह भी जयपुर से ही प्रकाशित हुआ है। एक कविता संग्रह हिन्दी में ही प्रकाशन की तैयारी में है।लोकभाषा निमाड़ी में ‘बेताल का प्रश्न’ व्यंग्य संग्रह आ चुका है तो,निमाड़ी काव्य काव्य संग्रह स्थानीय स्तर पर प्रकाशित है। आप खंडवा में रहते हैं। आडियो कैसेट,विभिन्न टी.वी. चैनल पर आपके कार्यक्रम प्रसारित होते रहते हैं। साथ ही अखिल भारतीय मंचों पर भी काव्य पाठ के अनुभवी हैं। परिचर्चा भी आयोजित कराते रहे हैं तो अभिनय में नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से साक्षरता अभियान हेतु कार्य किया है। आप वैवाहिक जीवन के बाद अपने लेखन के मुकाम की वजह अपनी पत्नी को ही मानते हैं। जीवन संगिनी को ब्रेस्ट केन्सर से खो चुके श्री चौरे को साहित्य-सांस्कृतिक कार्यक्रमों में वे ही अग्रणी करती थी।