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दो बजे की आधी छुट्टी में वह
घर खाना खाने आई,माँ तब भी रामायण पढ़ रही थी।
हम दोनों साथ में खाते थे।
‘आप आज फिर इतनी देर से खाना
खाएंगी।’
‘आज मशीनवाले जवाहर भैया
आ गए थे। चाय-नाश्ते के बाद भी देर
तक बैठे रहे,इसलिए देर हो गई।’
मैं भुनभुना रही थी।
माँ बोली-‘गृहस्थ जीवन एक साधना है। आए-गए का सम्मान करना हमारी परम्परा है।’
‘वो तो ठीक है,पर आप अपना
अध्याय पूरा करेंगी,तभी खाएंगी। सुबह से केवल चाय पी है आपने।’
‘पहले बाल का, फिर गोपाल का,
फिर अतिथि का सम्मान होता है, वहीं पर सुख का वास होता है ।
जब तक वो थीं घर अतिथियों से
भरा रहता था। साधना ही जीवन है।
#डॉ.राजलक्ष्मी शिवहरे
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