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हे मुरारी,मदन मोहन फिर नए सपने बुना दो,
हैं खड़े अर्जुन भ्रमित,पुरुषार्थ की गीता सुना दो।
नींव तक निज संस्कारों की उखड़ती जा रही है,
रक्ष संस्कृति की पुन: विष बेल बढ़ती जा रही है।
दिग्भ्रमित धरमावलंबी टोलियों में बंट गए हैं,
ज्ञान के भंडार सारे अब धरा पर घट गए हैं।
आज इस कुरुक्षेत्र में आ चक्रव्यूह अपना चुना दो,
हैं खड़े अर्जुन भ्रमित फिर कर्म की गीता सुना दो।
स्वार्थ में धृतराष्ट्र डूबे ~चाह में सत्ता बढ़ी है,
गोपियों की चीख से ब्रजभूमि तक आहत खड़ी है।
गाय, गंगा और गीता खो रहीं अस्तित्व अपना,
साधना पथभ्रष्ट होकर रह गई है सिर्फ सपना।
आर्य भू की शौर्यता प्रभु सुप्त रुधिरों को गुना दो,
हैं खड़े अर्जुन भ्रमित पुरुषार्थ की गीता सुना दो।
याद है ~तुमने कहा था ~ दौड़कर आ आएगा,
जब धरा पर पाप का~परचम कुटिल फहराएगा।
देख लो बृजराज कैसा ~पाप का सूरज चढ़ा है,
धर्मध्वज घूमिल हुआ, मानव पतन के पथ बढ़ा है।
आज फिर अवतार ले हरि निज वचन को गुनगुना दो,
हैं खड़े अर्जुन भ्रमित पुरुषार्थ की गीता सुना दो।
#अनुपम कुमार सिंह ‘अनुपम आलोक’
परिचय : साहित्य सृजन व पत्रकारिता में बेहद रुचि रखने वाले अनुपम कुमार सिंह यानि ‘अनुपम आलोक’ इस धरती पर १९६१ में आए हैं। जनपद उन्नाव (उ.प्र.)के मो0 चौधराना निवासी श्री सिंह ने रेफ्रीजेशन टेक्नालाजी में डिप्लोमा की शिक्षा ली है।
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