- ग़ज़ल
बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे।
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।।
किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफ़र धीरे-धीरे।।
जहाँ आप पहुँचे छलाँगें लगा कर,
वहाँ मैं भी पहुँचा मगर धीरे-धीरे।।
पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी,
उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे।।
गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया,
गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे।।
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2. ग़ज़ल
देख ली दुनिया तुम्हारी मेहरबानी देख ली।
तुम ने दी थी ओ ख़ुदा वो ज़िंदगानी देख ली।।
फूल से बचपन के सिर देखा बुढ़ापे का पहाड़,
आँसुओं की आँच में ग़लती जवानी देख ली।।
चीख़ती लपटें अचानक सामने उठने लगीं,
जब किसी घर में कोई लड़की सियानी देख ली।।
माँ ने बचपन में सुनाया जिस को लोरी की तरह,
अब हक़ीक़त में वो जंगल की कहानी देख ली।।
एक नन्हा ख़्वाब मेरा खो गया जाने कहाँ!
गाँव देखा शहर देखा राजधानी देख ली।।
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3. कल फिर सुबह नई होगी
दिन को ही हो गई रात-सी, लगता कालजयी होगी,
कविता बोली- “मत उदास हो, कल फिर सुबह नई होगी।”
गली-गली कूड़ा बटोरता, देखो बचपन बेचारा,
टूटे हुए ख़्वाब लादे, फिरता यौवन का बनजारा,
कहीं बुढ़ापे की तनहाई, करती दई-दई होगी।
जलती हुई हवाएँ मार रही हैं चाँटे पर चाँटा,
लेट गया है खेतों ऊपर यह जलता-सा सन्नाटा,
फिर भी लगता है कहीं पर श्याम घटा उनई होगी।
सोया है दुर्गम भविष्य चट्टान सरीखा दूर तलक,
जाना है उस पार मगर आँखें रुक जाती हैं थक-थक,
खोजो यारो, सूने में भी कोई राह गई होगी।
टूटे तारों से हिलते हैं यहाँ-वहाँ रिश्ते-नाते,
शब्द ठहर जाते सहसा इक-दूजे में आते-जाते,
फिर भी जाने क्यों लगता- कल धरती छंदमयी होगी!
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4. आम के पत्ते (कविता)
वह जवान आदमी
बहुत उत्साह के साथ पार्क में आया।
एक पेड़ की बहुत सारी पत्तियाँ तोड़ीं
और जाते हुए मुझसे टकरा गया।
पूछा-
‘अंकल जी! ये आम के पत्ते हैं ना?’
‘नहीं बेटे, ये आम के पत्ते नहीं हैं।’
‘कहाँ मिलेंगे? पूजा के लिए चाहिए।’
‘इधर तो कहीं नहीं मिलेंगे,
हाँ, पास के किसी गाँव में चले जाओ।’
वह पत्ते फेंककर चला गया।
मैं सोचने लगा-
अब हमारी सांस्कृतिक वस्तुएँ,
वस्तुएँ न रह कर
जड़ धार्मिक प्रतीक बन गई हैं,
जो हमारे पूजा-पाठ में तो हैं
किन्तु हमारी पहचान से गायब हो रही हैं।
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5. पिता तुम्हारी आँखों में
जाने क्या-क्या देखा पाया पिता तुम्हारी आँखों में।
फटेहाल बचपन था मेरा हँसती हुई उदासी-सा,
भूखा-प्यासा दिन आता-जाता था अपने साथी-सा,
लगता था मैं हूँ भर आया पिता तुम्हारी आँखों में।
जाने क्या-क्या देखा पाया पिता तुम्हारी आँखों में।।
कहाँ-कहाँ से तुम आते थे थके हुए तन में मन में ,
एक बेबसी चुप-चुप आकर सो जाती थी आँगन में,
हिलता था रातों का साया पिता तुम्हारी आँखों में।
जाने क्या-क्या देखा पाया पिता तुम्हारी आँखों में।।
भहराकर गिरती थीं जल में घर की दीवारें कच्ची,
नंगा हो उठता था आँगन, रोते थे चूल्हा-चक्की,
कैसी थी भादों की छाया पिता तुम्हारी आँखों में।
जाने क्या-क्या देखा पाया पिता तुम्हारी आँखों में।।
सन्नाटे को तोड़ महक-सा प्यार तुम्हारा बहता था,
ठंडे होंठों पर गीतों का उत्सव जगता रहता था,
फागुन ने था हाट लगाया पिता तुम्हारी आँखों में।
जाने क्या-क्या देखा पाया पिता तुम्हारी आँखों में।।
चलते-चलते चू पड़ता है कोई भी आँसू उर में,
मौसम-मौसम गाता-सा लगता है क्यों मेरे सुर में!
क्या यह सब कुछ रहा समाया पिता तुम्हारी आँखों में?
जाने क्या-क्या देखा पाया पिता तुम्हारी आँखों में।।
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6. कवि का घर
गेन्दे के बड़े-बड़े जीवन्त फूल
बेरहमी से होड़ लिए गए
और बाज़ार में आकर बिकने लगे।
बाज़ार से ख़रीदे जाकर वे
पत्थर के चरणों पर चढ़ा दिए गए
फिर फेंक दिए गए कूड़े की तरह।
मैं दर्द से भर आया
और उनकी पंखुड़ियाँ रोप दीं
अपनी आँगन-वाटिका की मिट्टी में।
अब वे लाल-लाल, पीले-पीले,
बड़े-बड़े फूल बनकर
दहक रहे हैं।
मैं उनके बीच बैठकर उनसे सम्वाद करता हूँ
वे अपनी सुगन्ध और रंगों की भाषा में
मुझे वसन्त का गीत सुनाते हैं।
और मैं उनसे कहता हूँ —
जीओ मित्रो !
पूरा जीवन जीओ उल्लास के साथ
अब न यहाँ बाज़ार आएगा
और न पत्थर के देवता पर तुम्हें चढ़ाने के लिए धर्म,
यह कवि का घर है।
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7. मेरे जाने के बाद
छोड़ जाऊँगा
कुछ कविता, कुछ कहानियाँ, कुछ विचार
जिनमें होंगे
कुछ प्यार के फूल
कुछ तुम्हारे उसके दर्द की कथाएँ
कुछ समय – चिंताएँ
मेरे जाने के बाद ये मेरे नहीं होंगे
मै कहाँ जाऊँगा, किधर जाऊँगा
लौटकर आऊँगा कि नहीं
कुछ पता नहीं
लौटकर आया भी तो
न मैं इन्हें पहचानूँगा, न ये मुझे
तुम नर्म होकर इनके पास जाओगे
इनसे बोलोगे, बतियाओगे
तो तुम्हें लगेगा, ये सब तुम्हारे ही हैं
तुम्हीं में धीरे-धीरे उतर रहे हैं
और तुम्हारे अनजाने ही तुम्हें
भीतर से भर रहे हैं।
मेरा क्या….
भर्त्सना हो या जय-जयकार
कोई मुझ तक नहीं पहुँचेगी॥
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8. कवि
आवाज़ों के कोलाहल में भी
तू कुछ गुनता रहता है।
सन्नाटे में भी ना जाने
क्या-क्या तू सुनता रहता है!
गठरी-मोटरी लाद दुखों की
ज़िंदगियाँ चलती रहती हैं।
कंगाली की कड़ी धूप में
वे नंगी जलती रहती हैं।
हँसता रहता आसमान
अपनी निर्दयता का सुख लेकर।
उनके लिए आँसुओं से तू
छायाएँ बुनता रहता है।
फैला आती हैं कबाड़
धन-मद-माते जलसों की रातें।
कितने ही टूटे बसंत
कितनी-कितनी रोती बरसातें।
मलबों के भीतर रह-रह
कुछ दर्द फड़फड़ाते-से लगते।
अपनी पलकों से प्रभात में
तू उनको चुनता रहता है।
ज़ख़्मी-ज़ख़्मी हवा घूमती
डरा-डरा-सा बहता पानी।
लगता है, यह समय हो गया
तम की एक अशेष कहानी।
‘नहीं, बहुत कुछ अभी शेष है’
तेरे सपनों से धुनि आती।
तेरे शब्दों का उजास, तम को
चुप-चुप धुनता रहता है।
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9. सूर्य ढलता ही नहीं
चाहता हूँ, कुछ लिखूँ, पर कुछ निकलता ही नहीं है।
दोस्त, भीतर आपके कोई विकलता ही नहीं है।
आप बैठे हैं अंधेरे में लदे टूटे पलों से,
बंद अपने में अकेले, दूर सारी हलचलों से,
हैं जलाए जा रहे बिन तेल का दीपक निरन्तर,
चिड़चिड़ाकर कह रहे- ‘कम्बख़्त,जलता ही नहीं है।’
बदलियाँ घिरतीं, हवाएँ काँपती, रोता अंधेरा,
लोग गिरते, टूटते हैं, खोजते फिरते बसेरा,
किन्तु रह-रहकर सफ़र में, गीत गा पड़ता उजाला,
यह कला का लोक, इसमें सूर्य ढलता ही नहीं है!
तब लिखेंगे आप जब भीतर कहीं जीवन बजेगा,
दूसरों के सुख-दुखों से आपका होना सजेगा,
टूट जाते एक साबुत रोशनी की खोज में जो,
जानते हैं- ज़िन्दगी केवल सफ़लता ही नहीं है!
बात छोटी या बड़ी हो, आँच में ख़ुद की जली हो,
दूसरों जैसी नहीं, आकार में निज के ढली हो,
है अदब का घर, सियासत का नहीं बाज़ार यह तो,
झूठ का सिक्का चमाचम यहाँ चलता ही नहीं है!
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10. आभारी हूँ बहुत दोस्तो
आभारी हूँ बहुत दोस्तो, मुझे तुम्हारा प्यार मिला
सुख में, दुख में, हार-जीत में एक नहीं सौ बार मिला!
सावन गरजा, भादों बरसा, घिर-घिर आई अँधियारी
कीचड़-कांदों से लथपथ हो, बोझ हुई घड़ियाँ सारी
तुम आए तो लगा कि कोई कातिक का त्योहार मिला!
इतना लम्बा सफ़र रहा, थे मोड़ भयानक राहों में
ठोकर लगी, लड़खड़ाया, फिर गिरा तुम्हारी बाँहों में
तुम थे तो मेरे पाँवों को छिन-छिनकर आधार मिला!
आया नहीं फ़रिश्ता कोई, मुझको कभी दुआ देने
मैंने भी कब चाहा, दूँ इनको अपनी नौका खेने
बहे हवा-से तुम, साँसों को सुन्दर बंदनवार मिला!
हर पल लगता रहा कि तुम हो पास कहीं दाएँ-बाएँ
तुम हो साथ सदा तो आवारा सुख-दुख आए-जाए
मृत्यु-गंध से भरे समय में जीवन का स्वीकार मिला!
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प्रो. रामदरश मिश्र
नई दिल्ली, भारत
परिचय
रामदरश मिश्र: जीवन एवं साहित्यिक वृत्त
जन्मः 15 अगस्त, 1924 को गोरखपुर जिले के डुमरी गाँव में
शिक्षाः एम.ए., पीएच.डी.
काव्यः पथ के गीत, बैरंग-बेनाम चिट्ठियाँ, पक गई है धूप, कन्धे पर सूरज, दिन एक नदी बन गया, मेरे प्रिय गीत, बाज़ार को निकले हैं लोग, जुलूस कहाँ जा रहा है?, रामदरश मिश्र की प्रतिनिधि कविताएँ, आग कुछ नहीं बोलती, शब्द सेतु, बारिश में भीगते बच्चे, हँसी ओठ पर आँखें नम हैं (ग़ज़ल संग्रह), ऐसे में जब कभी, आम के पत्ते, तू ही बता ऐ जिंदगी (ग़ज़ल संग्रह), हवाएँ साथ हैं (ग़ज़ल संग्रह), कभी-कभी इन दिनों, धूप के टुकड़े, आग की हँसी, लमहे बोलते हैं, और एक दिन, मैं तो यहाँ हूँ, अपना रास्ता, रात सपने में, सपना सदा पलता रहा।
उपन्यासः पानी के प्राचीर, जल टूटता हुआ, सूखता हुआ तालाब, अपने लोग, रात का सफ़र, आकाश की छत, आदिम राग, बिना दरवाज़े का मकान, दूसरा घर, थकी हुई सुबह, बीस बरस, परिवार, बचपन भास्कर का, एक बचपन यह भी, एक था कलाकार।
कहानी संग्रहः खाली घर, एक वह, दिनचर्या, सर्पदंश, बसन्त का एक दिन, इकसठ कहानियाँ, मेरी प्रिय कहानियाँ, अपने लिए, अतीत का विष, चर्चित कहानियाँ, श्रेष्ठ आँचलिक कहानियाँ, आज का दिन भी, एक कहानी लगातार, फिर कब आएँगे?, अकेला मकान, विदूषक, दिन के साथ, मेरी कथा यात्रा, विरासत, इस बार होली में, चुनी हुई कहानियाँ, संकलित कहानियाँ, लोकप्रिय कहानियाँ, 21 कहानियाँ, नेता की चादर, स्वप्नभंग, आखिरी चिट्ठी, कुछ यादें बचपन की (बाल साहित्य), इस बार होली में।
ललित निबन्धः कितने बजे हैं, बबूल और कैक्टस, घर-परिवेश, छोटे-छोटे सुख, नया चौराहा।
आत्मकथाः सहचर है समय।
यात्रावृतः घर से घर तक, देश-यात्रा।
डायरीः आते-जाते दिन, आस-पास, बाहर-भीतर, विश्वास ज़िन्दा है।
आलोचना: 1. हिन्दी आलोचना का इतिहास (हिंदी समीक्षा: स्वरूप और संदर्भ, हिंदी आलोचना प्रवृत्तियां और आधार भूमि), 2. ऐतिहासिक उपन्यासकार वृन्दावन लाल वर्मा, 3. साहित्य: संदर्भ और मूल्य, 4. हिंदी उपन्यास एक अंतर्यात्रा, 5. आज का हिंदी साहित्य संवेदना और दृष्टि, 6. हिंदी कहानी: अंतरंग पहचान, 7. हिंदी कविता आधुनिक आयाम (छायावादोत्तर हिंदी कविता), 8. छायावाद का रचनालोक, 9. आधुनिक कविता: सर्जनात्मक संदर्भ, 10. हिंदी गद्यसाहित्य: उपलब्धि की दिशाएँ, 11. आलोचना का आधुनिक बोध।
रचनावलीः 14 खण्डों में।
संस्मरणः स्मृतियों के छन्द, अपने-अपने रास्ते, एक दुनिया अपनी, सर्जना ही बड़ा सत्य है।
साक्षात्कार: अंतरंग, मेरे साक्षात्कार, संवाद यात्रा|
संचयनः बूँद बूँद नदी, नदी बहती है, दर्द की हँसी, सरकंडे की कलम।
संप्रतिः सेवा-निवृत्त प्रोफ़ेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय।
सम्पर्कः आर 38, वाणी विहार, उत्तम नगर, नई दिल्ली – 110059; मोब.: 7303105299
प्रमुख सम्मान
- दयावती मोदी कवि शेखर सम्मान (1998)
- शलाका सम्मान (2001) – हिन्दी अकादमी, दिल्ली
- साहित्यकार सम्मान (1984) – हिन्दी अकादमी, दिल्ली
- साहित्य भूषण सम्मान (1996) – उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ
- नागरी प्रचारिणी सभा सम्मान, आगरा (1996)
- साहित्य वाचस्पति (2008) – हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग
- डॉ. रामविलास शर्मा सम्मान (2003) – आल इंडिया कान्फ़्रेन्स ऑफ़ इंटलेक्चुएल्स, आगरा चैप्टर
- महापंडित राहुल सांकृत्यायन सम्मान (2004) – केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा
- भारत भारती सम्मान (2005) – उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ
- पूर्वांचल साहित्य सम्मान (2005) दिल्ली
- सारस्वत सम्मान (2006) – समन्वय, सहारनपुर
- सारस्वत सम्मान (2006) – सरयू प्रसाद, बाल विद्यालय इंटर कॉलेज, कानपुर
- उदयराज सिंह स्मृति सम्मान (2007) – नई धारा, पटना
- अक्षरम शिखर सम्मान (2008) – दिल्ली
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- राष्ट्रीय साहित्यिक पुरस्कार (2012) – श्री मध्यभारत हिंदी साहित्य समिति, इंदौर
- विश्व हिंदी सम्मान (2015) –विश्व हिंदी सम्मलेन
- साहित्य अकादमी (2015)
- शान ए हिंदी खिताब (2017) – साहित्योत्सव, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र
- साहित्य शिरोमणि सम्मान (2018) – अखिल भारतीय स्वतंत्र लेखक मंच
- प्रभात शास्त्री सम्मान (2018) – हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग
- पद्मश्री- भारत सरकार का नागरिक पुरस्कार (2025)
- जीवन गौरव सम्मान (2025)- मातृभाषा उन्नयन संस्थान, भारत पुरस्कृत कृतियाँ
आग की हँसी (साहित्य अकादमी), रोशनी की पगडंडियां (हिंदी अकादमी दिल्ली), ‘हिंदी आलोचना का इतिहास‘, ‘जल टूटता हुआ‘, ‘हिंदी उपन्यास एक अन्तर्यात्रा‘, ‘अपने लोग‘, ‘एक वह‘, ‘कंधे पर सूरज‘, ‘कितने बजे हैं‘, ‘जहां मैं खड़ा हूँ‘, ‘आज का हिन्दी साहित्यः संवेदना और दृष्टि‘ (उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान) ‘अपने लोग‘ (आथर्स गिल्ड), ‘आम के पत्ते‘ (के.के. बिरला फ़ाउंडेशन)
अकादमिक एवं साहित्यिक पद
- अध्यक्ष, भारतीय लेखक संगठन 1984-1990
- प्रधान सचिव, साहित्यिक संघ, वाराणसी 1952-55
- अध्यक्ष, गुजरात हिन्दी प्राध्यापक परिषद् 1960-64
- अध्यक्ष, मीमांसा, नई दिल्ली
- अनेक मंत्रालयों में हिन्दी सलाहकार समिति के सदस्य
- गुजरात विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर हिन्दी केन्द्र के प्रभारी प्रोफ़ेसर (1959-64)
- प्रोफ़ेसर, दिल्ली विश्वविद्यालय
- अनेक विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम समिति के सदस्य
- साहित्य अकादमी, हिन्दी अकादमी, दिल्ली तथा अनेक विश्वविद्यालयों तथा प्रतिष्ठित संस्थाओं की संगोष्ठियों की अध्यक्षता
- कई पत्रिकाओं के सलाहकार संपादक
- अध्यक्ष, प्रबंध समिति, राजधानी कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय (1999-2000)
साहित्यिक उपलब्धियाँ
- रचनाओं का देश की प्रायः सभी भाषाओं में अनुवाद।
- अनेक विश्वविद्यालयों तथा विद्यालयों के पाठ्यक्रम में रचनाएँ।
- रचनाओं पर अनेक विश्वविद्यालयों में पीएच.डी. का शोधकार्य।
- रचनाओं पर कई समीक्षात्मक ग्रंथ प्रकाशित।



