बिन बुलाये मेहमान

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घर की खुली खिडकियों से
ना जाने क्यूँ आ जाते हैं
ये बिन बुलाये मेहमान
कभी उत्सुकता से मुझे देखते हैं
तो कभी अपनी व्यस्तताओं में उलझ जाते हैं
कभी अपने पंखों को फडफडाते हैं
जैसे कर रहे हो अपने पे ही गुमान
ना जाने क्यूँ आ जाते हैं
ये बिन बुलाये मेहमान
तिनका –तिनका बीनकर लाते हैं
मेरे घर के कोने में , अपना आशियाँ बनाते हैं
सजोते हैं अपने सपनों को
देकर एक नवजीवन को आकार
जमाते हैं अधिकार अपना मेरे ही घर के कोने में
फिर दिखाते हैं मुझको ही आँखें ,मारकर चोंच अपनी
जैसे कभी थी ही नहीं मेरी उनसे कोई जान-पहचान
ना जाने क्यूँ आ जाते हैं
ये बिन बुलाये मेहमान
समय बीतता जाता है , और कर लेती हूँ मैं अपनी हार स्वीकार
बस मौन प्रतिमा सी देखती रहती हूँ
उन नन्हे परिंदों की फुद्कनें और उड़ान
लेकिन अचानक उड़ जाते हैं कहीं खुले आसमान में
मेरी बेचैन नज़रें तलाशती हैं उन्हें
देखती हूँ झुण्ड परिंदों के तो सोचती हूँ की पुकार लूँ उन्हें
पर कैसे पुकारूं? उन्होंने तो कभी बताया ही नहीं अपना नाम
ना जाने क्यूँ चले आते हैं
ये बिन बुलाये मेहमान
जाना ही था तो क्यूँ आये थे
मिटाने मेरी खामोशियों के निशान
क्यूँ चले गए और कर गए
मेरे घर को वीरान
अब देतीं हूँ तसल्ली दिल को कि
फिर से आएगा बसंत ,तो फिर से आयेंगे मेरे आँगन में
बढ़ाएंगे मेरे घर की रौनक , करेंगे फिर से वही गुमान
अब हर पल बस यही सोचती हूँ किमह
कब आयेंगे मेरे वो मनचाहे मेहमान
मेरे मनचाहे मेहमान ..

रिंकल शर्मा

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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