
कैसा है यह मन बावरा, अनजाने डर से यह घबराता
न कोई अपना न कोई पराया, फिर भी ढूंढे यह साथी पहचाना
ना जाने कैसा है यह मन बावरा—-
पता है इसको माहौल पुराना कि जहाँ वाह वहां अफवाह
फिर भी अफवाहों से यूं ही डर जाता मेरा मन बेचारा
ना जाने कैसा है यह मन बावरा—-
लोगों ने ना जाने क्या-क्या कहा, बहुत कुछ बोला बहुत कुछ कहा
फिर भी मन में कुछ ना सुना, पर दिल नहीं हूं ही घबरा कर कहा–
” अब ना कहो तुम कुछ भी सह नहीं पाऊंगा
रुक जाओ तुम अब यही नहीं तो अश्रुधार बन जाऊंगा
दर्द होता है मुझको भी तुम्हारी इन अफवाहों से
क्योंकि पाषाण नहीं हूं मैं हूं मैं द्रवित मोम सखी
बात इतनी है नहीं जितनी तुम बताते हो
ना जाने क्यों तुम मेरी इतनी अफवाह उड़ाते हो
क्या मिलता है तुमको इसमें जो मुझे इतना सताते हो
सुकून तुम्हें शायद मिलता होगा पर चैन मेरा ले जाते हो”!
बस इन सब बातों से घबराता मेरा मन बावरा
और बेसिर पैर की अफवाहों से डर जाता मेरा मन बावरा!!”
अंत में मेरी यह दो लाइन कुछ लोगों को समर्पित–
“अफवाहों का बाजार गर्म है जरा संभलकर कदम बढ़ाइए
दिल किसी का ना दुखे जरा इस पर भी गौर फरमाइए”!!
गुंजन शिशिर
वृंदावन, उत्तर प्रदेश