मोहब्बत हो गई

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खुद एक चांद हो तो
क्यों पूर्णिमा इंतजार करे।
और मोहब्बत का इसी रात में
होकर मदहोश हम आंनद ले।।

तुम जैसे दोस्त से
यदि मोहब्बत हो जाये।
तो हमें सीधी सीधी
जन्नत मिल जाये।।

डूब चुका था
प्यार के सागर में,
और नश नश में
मोहब्बत भर गया था।
क्यों बहार निकाला
मुझे इस सागर से..?
इस प्रश्न का उत्तर
अब तुमको ही देना है।।

गुजारिश है तुमसे आज
दिलमें थोड़ी सी जगह दे दो।
और अपनी गर्म सांसो से
मुझे फिरसे जीवन दे दो।।

आज दिलको मत रोकना
हजूर दिलसे मिलने को।
क्योंकि ये पहले ही व्याकुल था
तुम्हारे दिलमें डूबने को।।

इतने सुंदर हो तुम की
देखकर दर्पण भी शर्मा रहा है।
मेरा दिल भी तो आईना है
जो परछाई मुझे दिखा रहा।।

इसलिए मेरा दिल आज
तुम्हारे दिलमें शामाया है।
जो धड़कनों को मेरी
मोहब्बत करने को बुला रहा।।

कितनी हसीन रात है
जो हमको बुला रही है।
क्योंकि दो दो चांद जो
एक साथ आज निकले है।।

तुम्हारे हर शब्दो को अब तक
मैंने दिलमें सजाकर रखे है।
तभी तो मोहब्बत के चिराग
अभी भी जल रहे है।।

जय जिनेन्द्र देव
संजय जैन (मुम्बई)

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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