न्यायमूर्ति स्व. चंद्रशेखर धर्माधिकारी से वह मुलाकात…..।

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एक बार में मुंबई उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश, गांधीवादी और भारतीय भाषा-प्रेमी स्वर्गीय न्यायमूर्ति चंद्रशेखर अधिकारी से उनके आवास पर उनसे मिलने के लिए गया। कुछ औपचारिक बातों के बाद मैंने उनसे कहा, ‘सर, मुझे इस बात पर चर्चा करनी है कि संघ और राज्यों द्वारा बनाए गए विभिन्न कानूनों के अंतर्गत देश की जनता को प्राप्त कानूनी अधिकारों का देश की 95% से अधिक जनता को लाभ नहीं मिल रहा है। उनकी अनेक कानूनी अधिकारों का हनन होता चला आ रहा है।’

मेरी बात सुनकर माननीय न्यायमूर्ति जी थोड़ा विचलित और आक्रोशित हुए, ‘क्या बात कर रहे हैं? आप जानते हैं, आप एक न्यायमूर्ति के सामने आप ऐसी बात कर रहे हैं? ‘मैंने बड़ी विनम्रता के साथ कहा, जी हाँ, सर। उन्होंने मेरी तरफ गौर से देखा और पूछा, ‘बताइए कैसे?’ मैंने थोड़ा जोखिम उठाते हुए और कुछ धृष्टतापूर्वक कहा, सर जर्मन भाषा में बताऊं?’ आशंका के अनुरूप वे थोड़ा और गुस्से में आ गए और कहा, ‘क्या बात कर रहे हैं आप, आप जर्मन में बोलेंगे तो मुझे कैसे समझ में आएगा कि आप क्या कहना चाहते हैं?’

मुझे भी जर्मन कहाँ आती थी। मेरा उद्देश्य ही उन्हें उद्वेलित करना था। मैंने कहा, ‘माफ कीजिए सर, मैं यही कहना चाहता था कि संघ और राज्यों के विभिन्न कानूनों के अंतर्गत जनता को जो भी सूचनाएं दी जानी आवश्यक हैं, उन्हें दी तो जाती है लेकिन उन्हें प्राप्त नहीं होती। अंग्रेजी में होने के कारण उन्हें कुछ समझ नहीं आता, वास्तव में उन्हें वे सूचनाएँ कभी मिलती ही नहीं। कानूनी औपचारिकताएं तो पूरी हो जाती हैं, लेकिन सूचनाएँ न मिलने से उनके कानूनी अधिकारों का हनन होता रहता है।’

वे मेरी बात ध्यान से सुन रहे थे। अवसर मिलने के कारण मैंने अपनी बात जारी रखी, ‘उदाहरण के लिए ज्यादातर कंपनियां जिनके लिए ग्राहकों को विभिन्न ग्राहक कानूनों के अंतर्गत उत्पादों के संबंध में जानकारी दिया जाना आवश्यक है, लेकिन ज्यादातर कंपनियां उत्पाद पर ये जानकारी केवल अंग्रेजी में ही छापती हैं। तो देश की 95% से अधिक जनता, जो अंग्रेजी बिल्कुल नहीं जानती या अच्छी तरह नहीं जानती, उन्हें उत्पाद पर अंग्रेजी में दी गई उस जानकारी से क्या लाभ होगा ? एक ग्राहक के तौर पर उन्हें ग्राहक कानून के अंतर्गत प्राप्त अधिकार कैसे प्राप्त होंगे ?’

मैंने देखा कि उनकी आंखें कुछ फैल रही थीं। मैंने आगे फिर अपनी बात जारी रखी, ‘सर, मान लीजिए मैं बहुत धनी व्यक्ति हूँ। करोड़ों रुपए शेयर बाजार में निवेश करता हूं। कंपनी अधिनियम के अनुसार मुझे उन कंपनियों के कारोबार, लाभ-हानि, आगामी योजनाओं आदि की जानकारी दी जानी आवश्यक है, जिनका मैं शेयरधारक हूँ। लेकिन इन कंपनियों द्वारा कंपनी अधिनियम के अंतर्गत दी जाने वाली तमाम जानकारियां केवल अंग्रेजी में होती हैं। अंग्रेजी का भाषा में प्रवीण न होने के कारण एक धनी व्यक्ति होने पर भी मुझे कंपनी अधिनियम के अंतर्गत एक शेयरधारक के रूप में प्राप्त अधिकारों का लाभ नहीं मिल पाता। ऐसे सैंकड़ों कानून हैं जिनमें सूचना के उपबंध होंगे लेकिन जनता को सचना न मिलने से उनके तमाम कानूनी अधिकारों का हनन होता है। एक भाषायी प्रावधान के अभाव में देश के 95% लोगों के अनेक कानूनी अधिकारों का हनन हो रहा है सर।’

न्यायमूर्ति चंद्रशेखर धर्माधिकारी चौंके। उन्होंने कहा, ‘बात तो बिल्कुल सही है। मैंने भाषा की इस समस्या को कभी इस नजरिए से देखा ही नहीं। किसी ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया।’ मैं प्रसन्न था कि इतने बड़े न्यायमूर्ति और विचारक तक मैं अपनी बात सफलतापूर्वक रख सका और उन्हें मेरी बात अच्छी तरह समझ में भी आई। उत्साहित होते हुए मैंने कहा, सर, तो फिर देश के करोड़ों लोगों की हित में क्यों न आप ही सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर करें और जनता की विभिन्न कानूनी अधिकारों के हनन को रोकने के लिए यह माँग करें कि देश की जनता को विभिन्न कानूनों के अंतर्गत दी जाने वाली सूचनाएँ जनभाषा में अर्थात संघ के स्तर पर संघ की राजभाषा हिंदी में और राज्यों के स्तर पर राज्यों की राजभाषा में प्रदान करना अनिवार्य किया जाए।’

लेकिन शासन-प्रशासन और न्यायपालिका में भारतीय भाषाओं के प्रति रवैये को लेकर उन गांधीवादी भारतीय भाषा व हिंदी-प्रेमी न्यायमूर्ति के अनुभव भी अच्छे न थे। उन्हें इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय से भी कोई बहुत आशा न थी। उन्होंने कहा, ‘वहां भी कुछ होगा, ऐसा लगता नहीं है। इसलिए बेहतर होगा कि इस विषय को लेकर जनजागरण किया जाए।’

उनके सुझाव अनुसार ‘वैश्विक हिंदी सम्मेलन’ की स्थापना की गई और सोशल मीडिया आदि के माध्यम से देश-विदेश में वैश्विक स्तर पर भारतीय भाषाओं के विभिन्न पक्षों पर जन-जागरण का अभियान प्कारारंभ कर दिया।

डॉ. एम.एल. गुप्ता आदित्य

निदेशक, वैश्विक हिंदी सम्मेलन।

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