
डिप्रेशन के कई नाम हैं।जैसे अवसाद, गिराव, खिन्नता इत्यादि।जो अत्याधिक तनाव से उत्पन्न होता है।जिसे मानव प्रकृति का मात्र एक भाग माना गया है।जो प्रत्येक व्यक्ति में होता है।जिसकी प्रतिशत मात्रा किसी में कम और किसी में अधिक होती है।जिसे प्राकृतिक कहना उचित और अनुचित की दोनों श्रेणीयों मेंं सटीक माना गया है।
क्योंकि अकारण डिप्रेशन की उत्पत्ति को प्राकृतिक मानने के अलावा कोई विकल्प शेष नहीं रहता।जबकि डिप्रेशन के समस्त आधार जब स्पष्ट हों, तब उस परिस्थिति को प्राकृतिक कहना प्रकृति को गाली देने के समान है।अर्थात प्रकृति का घोर अपमान है।
चूंकि मानव का मस्तिष्क होता है।जिसपर सोचने समझने और मंथन करने का उत्तरदायित्व होता है।उसी उत्तरदायित्व में धर्मग्रंथों में मानव को मानवता, आशा-निराशा, आर्थिक व सामाजिक विकासशीलता, अनुशासन, धर्म एवं संस्कृति, राष्ट्र और राष्ट्रप्रेम के साथ-साथ संविधान का पाठ भी बाल्यावस्था मेंं पढ़ाया जाता है।जिसका प्रभाव मानव के मस्तिष्क पर पड़ना स्वाभाविक है।
उल्लेखनीय है कि मानव जब समाज की उपरोक्त विपरीत परिस्थितियों का सामना करता है, तो उसमें भावनात्मक प्रतिक्रियाएं उत्पन्न होती हैं।जिनका टकराव धर्म, संस्कृति, सामाजिक मान्यताओं, स्वाभिमान, राष्ट्र और राष्ट्रप्रेम, संवैधानिक कर्त्तव्यों और आधिकारों, आशाओं और निराशाओं, न्याय और अन्याय से होता है।जिनसे सकारात्मक और नकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।जिसका सीधा प्रभाव मानव मस्तिष्क पर पड़ता है।जिससे मानव के मस्तिष्क में प्रतिद्वंद आरंभ होता है।उसी प्रतिद्वंद से तनाव पैदा होता है। जिसकी निरंतर नकारात्मक तिरंगों से उत्पन्न प्रतिक्रियात्मक सामाजिक संबंध और दूरियों के विषाक्त द्रव को ही 'डिप्रेशन अर्थात अवसाद' कहते हैं।
जिसकी समस्त चुनौतियों से उभरने के लिए सार्थक साक्ष्यों से मनोबल को बढ़ाकर उनका दृढ़ता से सामना करना और मस्तिष्क के चारों ओर रचे गए विरोधी नकारात्मक ऊर्जा के चक्रव्यूह को सकारात्मक ऊर्जा के रामबाण से भेदना एकमात्र उपाय है।
इंदु भूषण बाली…..
जम्मू (जम्मू-कश्मीर)