राह में जो सुना मन में चलता रहा ।
सब खयालों को भी वह निगलता रहा ।
ये है उसकी कथा जिसने सब कुछ किया ।
हाथ फिर भी वो खाली ही मलता रहा ।
सबके छल छद्म सारे धरे रह गये ।
चाहा सबने रुके, फिर भी चलता रहा ।
सबने टोका बहुत कुछ न कर पायेगा ।
हार सबसे मिली फिर भी पलता रहा ।
साथ कोई नहीं ये तो सहनीय था ।
जो थे, उनका दगा, उसको खलता रहा ।
हो सफल वह, इसी के तो खातिर अरे ।
हर कदम पर वो खुद को बदलता रहा ।
उसकी किस्मत को देखूँ तो लगता मुझे ।
रात भर चाँदनी से भी जलता रहा ।
ऎसी किस्मत यदि हो किसी को मिली ।
समझो अपना ही दुष्कर्म फलता रहा ।
पूरी हो गई यहाँ, हां कथा आज पर ।
हार के भी ‘सहज’ वो सँभलता रहा ।
साकेत जैन शास्त्री ‘सहज’
जयपुर(राजस्थान)