मृण्मूर्ति

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*मृण्मूर्ति* को निज गुरु मान
  करता रहा नित शर संधान
  संसृति से वो रहा विरत
  अभ्यास साधना रही सतत
  गुरु द्रोण चले जब वन विहार
  संग कौरव पांडव राजकुमार
  शब्द भेद से साधे बाण
  प्रत्यक्ष को केसा प्रमाण
  बाणों से भरा मुख श्वान
  किन्तु है रक्त न कोई निशान
  गुरु चकित,कुमार अचंभित
  कैसे  हैं ये बाण अलक्षित
  अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धारी
  कैसे हो सकता वनचारी
  किया शोध तो देखा दृश्य
  गुरु साधना लीन खड़ा एकलव्य
  माँगा अंगुष्ठ दाहिना कर
 अर्जुन सा न हो अन्य धनुर्धर
 लेशमात्र विचार न किया मन में
 काटा अंगुष्ठ उसी क्षण में
 ये कैसी गुरु दक्षिणा थी
 साधक की अटल साधना थी
 अंगुष्ठ सौंप गुरु के कर में
 वो अनन्य हुआ विश्व भर में
                          #रश्मि शर्मा

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