शिशिर की
हाड़ कँपाती सर्द रातें
विचरण कराती हैं
किसी को स्वप्न लोक में।
तो,
कट जाती हैं किसी की
आँखों-आँखों में।
किसी के लिये
बंद कमरा,नर्म-गर्म बिछौना
और लिहाफ़ की गरमी भी
कम पड़ती है।
तो कोई,
खुला आसमान,
धरिणी की गोद
झीनी सी चादर
तानकर नख -शिख
अपनी ही श्वासों से
गर्माहट पा
सुकून से सो जाता है।
और कहीं कोई दुधमुँहा
ठिठुरती माँ से चिपक
छाती तापता है।
तो कहीं कोई नन्हा
आँचल से लिपट
रज़ाई का अहसास बांचता है।
और माँ……
माँ अपने अंश की ख़ातिर
हँसकर सब सह जाती है।
बस,
यहीं-कहीं जिजीविषा भी
अस्तित्व पा जाती है।।
#वर्षा अग्रवाल