अपनी भाषा , अपना वेश

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vaishwik

भाषा संस्कृति की संवाहक, वेष देश का है परिचायक।।
” क्या भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है ? ” अंग्रेज़ी में उसने पूछा । मैंने कहा – ” हाँ , हिन्दी है “।

उसने उत्तर दिया -” मैंने तो आज तक किसी भारतीय को हिन्दी बोलते नहीं सुना ।” मैंने कहा – ” जब विदेशी भी साथ में होते हैं तो अंग्रेज़ी में बोलना पड़ता है , जिससे वे भी समझ सकें ।” उसने पुन: प्रतिवाद किया – ” मैडम, मैंने देखा है कि जब केवल भारतवासी होते हैं , तब भी वे अंग्रेज़ी में ही बातें करते हैं ।” मैं अपनी बात पर लज्जित हुई । फिर मैंने छात्रों को समझाया कि भारत मेंअनेक भाषाएँ / बोलियाँ हैं, प्राय: उत्तर के लोग दक्षिण की भाषाओं को नहीं जानते । लम्बे समय तक भारत में अंग्रेज़ी राज्य रहने के कारण स्कूली शिक्षा के पाठ्यक्रम में अंग्रेज़ी की अनिवार्यता रही । अत: परस्पर समझने के लिये अंग्रेज़ी के माध्यम से सम्भाषण करना बहुतों को सहज लगता है ।

उस दिन मेरी भारतीयता को किसी ने जैसे झकझोर दिया था। स्वतन्त्र राष्ट्र भारत की अस्मिता पर जो करारी चोट मिली थी, उससे मन विक्षुब्ध हो गया था । ये घटना सन् १९६३ की है , जब मैं जर्मन एकेडेमिक एक्सचेंज सर्विस की छात्रवृत्ति पर जर्मनी के ट्यूबिंगेन विश्वविद्यालय में शोधकार्य के साथ ही सप्ताह में दो दिन हिन्दी और संस्कृत पढ़ाया करती थी । सच तो ये है कि विदेश में ही नहीं ,स्वदेश यानी भारत में में – स्वतन्त्रता के सत्तर वर्षों बाद भी – अंग्रेज़ी का ही बोलबाला है । समाज में अंग्रेज़ी इस तरह रची बसी है कि जैसे वह हमारी मातृभाषा हो । सांस्कृतिक कार्यक्रमों में – संगीत ,नृत्य आदि में, उत्सवों , समारोहों में भी अंग्रेज़ी ही छायी रहती है । गुड मॉर्निंग , हैप्पी होली / दिवाली , हैप्पी बर्थडे आदि वाक्य तो भारतीय समाज में ऐसे घुले मिले हैं कि उनके स्थान पर हिन्दी के सभी शब्द अनुपयुक्त से लगते हैं । विगत वर्षों में शासन की ओर से भी हिन्दी को भारतीयों में स्थापित करने , प्रारंभ से शिक्षा में इसकी नींव डालने के लिये पर्याप्त प्रयास नहीं किये गये । साथ ही राष्ट्रीयता की भावना तो ऐसी रही कि हमारे बहुसंख्यक देशवासियों द्वारा समझी और बोली जाने वाली भाषा होने पर भी , प्रतिद्वन्दिता की भावना के कारण अनेक प्रान्त वालों ने स्वदेशी भाषा हिन्दी के स्थान पर विदेशी भाषा, जो हमारी दासता का प्रतीक भी है , उसे ही अपनाना श्रेयस्कर माना है । उत्तर में बद्री-केदार से दक्षिण में रामेश्वरम- कन्याकुमारी तक और पूर्व में जगन्नाथपुरी से पश्चिम में द्वारका तक तीर्थयात्रियों में प्राय: सभी के द्वारा हिन्दी समझी और बोली जाती रही है । फिर भी अनिवार्यता के अभाव में इसे जन जन ने उस रूप में नहीं अपनाया है जैसे कभी उर्दू , फ़ारसी को अपनाया था और बाद में ब्रिटिश शासनकाल से लेकर आज तक अंग्रेज़ी भारतीय जीवन में रच बस गयी है ।

कुछ समय पूर्व मैंने समाचारपत्र में ये घटना पढ़ी थी । प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता एवं निर्देशक स्व. शशि कपूर की फ़िल्म ” 36 चौरंगी लेन ” ऑस्कर अवार्ड में निर्णायकों द्वारा पुरस्कृत होने के लिये चुन ली गयी थी । सब निश्चित हो जाने पर एक सदस्य ने अन्त में टेक्निकल ग्राउंड पर समस्या उठा दी कि इस फ़िल्म ने भारतीय भाषा की फ़िल्म के रूप में इस अवॉर्ड के लिये प्रवेश किया था किन्तु ये भारतीय भाषा में न होकर अंग्रेज़ी में बनी फ़िल्म थी । अत: इसे पुरस्कृत होने से निरस्त कर दिया गया था । विदेशी भाषा में बनी होने कारण देश की अस्मिता को चोट लगने से सभी को दु:ख हुआ था ।

यूरोप जाने से पूर्व मेरी धारणा थी कि वहाँ सभी जगह अंग्रेज़ी से काम चल जाएगा । भारत में प्राय: सभी ऐसा सोचते हैं । मेरा अनुभव ५५ वर्ष पूर्व का है । तब मैंने पाया कि सभी विदेशियों को अपनी अपनी भाषा से इतना प्रेम है कि वे दूसरी भाषा जानते हुए भी बोलते नहीं हैं । फ़्रांस में किसी से कुछ पूछो तो ” कॉम परम्पा ” ( मुझे नहीं मालूम ) कह कर आगे बढ़ जाता था । सभी फ़्रेंच ही बोलते थे । एक बार एक अफ़्रीकी ने मुझे मार्ग बताया था । पिक्चर कार्ड भारत भेजने के लिये मुझे जब स्टैम्प्स लेने थे तो हाथ पर सिक्के रख कर खिड़की में आगे बढ़ा देती थी । वहाँ बैठा व्यक्ति उचित पैसे ले लेता था । इटली के फ़्लोरेंस नगर में प्यास से मेरा बुरा हाल हो गया था। ट्रेन में बैठे लोगों से मैंने ” वॉटर ” और “वासर” ( जर्मन) पूछा । कुछ पता न चलने पर मैंने अपनी वॉटर बॉटल दिखाकर गले पर हाथ रख कर इशारा किया । तो उन लोगों ने पूछा ” अकुवा ” ? ये शब्द तब भारत में आज की तरह प्रचलित नहीं था । फिर भी मैंने विवश होकर “हाँ ” में सिर हिला दिया था कि देखें “अकुवा” क्या है ? भाग्य से उसने पानी ही लाकर दिया और उसे पीकर मेरे प्राण लौट आए । मैंने इशारे से उसको धन्यवाद दे दिया था ।

रोम में , कारणवश, निश्चित दिन से एक दिन पहले पहुँचने से मेरे मित्र स्टेशन पर नहीं मिले थे। इटैलियन न आने के कारण इंग्लिश ? जर्मन ? पूछते पूछते मैं दिन में बहुत देर तक सड़कों पर चलती रही थी । बड़ी कठिनाई से एक व्यक्ति मिला – जो थोड़ी इंग्लिश जानता था । उसने मदद की थी । स्विट्ज़रलैंड और ऑस्ट्रिया में भी सभी जर्मन बोलते थे , लेकिन जर्मन भाषा आने से मुझे वहाँ कोई कठिनाई नहीं हुई । अन्यथा वहाँ भी परेशानी झेलनी पड़ती । मुझे लगा कि केवल हम भारतीय ही चाहे स्वदेश में हों या विदेश में हों , अंग्रेज़ी में ही बात करने में शान समझते हैं । कुछ लोग तो निर्विकार भाव से कह देते हैं ” आइ डेंट नो हिन्दी ।” (मुझे हिन्दी नहीं आती है )। हमने इंग्लिश की ऊटपटाँग स्पेलिंग्स को रट रट कर सीख लिया। दो शब्द एक जैसे उच्चारण के ,लेकिन स्पेलिंग अलग अलग हैं । अनेक शब्दों में अनावश्यक अक्षर घुसे पड़े हैं , जिनका उच्चारण में प्रयोग नहीं होता पर लिखे जाते हैं । उनकी स्पेलिंग रटना कितना परिश्रमसाध्य और समयसाध्य होता है , फिर भी सीखा। भिन्न लिपि होने पर भी अंग्रेज़ी और उर्दू / फ़ारसी को सीखा और प्रवाहपूर्वक लिखने -बोलने लगे ।

हिन्दी में जैसा लिखते हैं वैसा ही पढ़ते हैं और जैसा बोलते हैं, वैसा ही लिखते हैं । एक बार अक्षर ज्ञान हो जाने पर शुद्ध लिखने या पढ़ने में कभी कोई कठिनाई नहीं आती है । तब भी बहुत से लोग हिन्दी नहीं सीखते हैं । जैसे अंग्रेज़ी ने पूरे भारत को एक सूत्र में बाँध दिया था , वैसे ही आज उस एक भाषा में बाँधकर ही देश में एकता स्थापित होगी , जो बहुसंख्यक भारतीयों द्वारा बोली और समझी जाती है । परस्पर विचारों के आदान-प्रदान के लिये विशाल भारत में माध्यम के रूप में एक भाषा की अनिवार्यता होनी ही चाहिये। अन्यथा हम परस्पर अपरिचित और अजनबी बनकर ही रह जाएँगे तो देश की उन्नति कैसे हो सकेगी ?

अब वेश-भूषा की चर्चा भी हो जाए । जर्मनी में रहते हुए भारतीय वेश यानी साड़ी में देखकर आसपास के बच्चे कहने लगते थे -” इंडेरिन इंडेरिन ”
( भारतीय महिला ) । अक्सर जर्मन में पूछते ” वरुम हाबेन ज़ी ब्राउट क्लाइड ?” (वधू जैसी ड्रेस क्यों पहनती हो?) या फिर माथे पर लाल पॉइंट क्यों लगाती हो ? आदि आदि । रास्ते में मुझे देखकर, भारतीय समझकर जर्मन में ही बात करते , अपने घर आने का निमन्त्रण देते । फिर घर जाने पर भारत के विषय में जानकारी लेते । परिवार के बारे में पूछते । मुझसे उषा पटेल ने कहा-” आपको इतने लोग बुलाते हैं , मुझे तो कोई नहीं बुलाता । ” मैंने कहा -” तुमको जीन्स और शर्ट में देखकर कोई भारतीय नहीं समझता । मेरा वेश उन्हें बता देता है कि मैं भारतीय हूँ , उनको भारत के प्रति जिज्ञासा भी है और लगाव भी ।” स्त्रियाँ मेरी साड़ी को छूकर मुझसे पूछतीं ” राइने साइडे ? ” ( प्योर सिल्क ? )। मैं ” हाँ ” कहती , तो पूछतीं कि इसमें ठंडक नहीं लगती ? मैं बताती कि अन्दर गर्म कपड़ा पहने हूँ । तो आश्चर्य से मुस्कुराती हुई चली जातीं थीं ।

मेरी जर्मन मित्रों ने मेरी साड़ी पहिन कर फ़ोटो खिंचाईं थीं । मेरी मित्र फ़्राउलाइन (मिस) शालर कहती – तुम्हारी ड्रेस कितनी ग्रेसफ़ुल है ! दूर से देखकर पता चल जाता है कि कोई लेडी आ रही है । हमारे यहाँ तो सभी पैंट-शर्ट , जीन्स पहिनते है । बाल भी छोटे रखते हैं , तो दूर से मेल और फ़ीमेल का अन्तर ही नहीं पता चलता है ।एक जर्मन महिला मित्र भारतीय पुरुष से विवाह करने जा रही थी , तो उसने मुझसे कहकर भारत से लाल साड़ी मँगवाई थी । एक बार एक महिला फ़ैन्सी ड्रेस में भारतीय बनने के लिये मुझसे साड़ी माँगने आईं । मैंने उनको पहिनना सिखाया था और हाथ जोड़कर नमस्ते करते हुए खड़े रहने को कहा था । फिर साड़ी उनको ही दे दी थी। तो वे बहुत प्रसन्न हुईं थीं । कहने लगीं – योर ड्रेस इज़ ऑल्वेज़ वेरी कलरफ़ुल ऐंड ब्यूटीफ़ुल । आई लव योर ऑल ड्रेसेज़।”( आपकी सारी साड़ियाँ रंगबिरंगी और सुन्दर हैं , मुझे सभी बहुत अच्छी लगती हैं ।)।

एक सुविख्यात जर्मन मूर्तिकार ने तो मुझे भारतीय महिला जानकर मेरी प्रतिमा ( bust ) भी बनाकर मुझे उपहार रूप में दी थी , जो आज भी मेरे पास है ।
भारतीय संगीत – नृत्यादि को विदेशी बहुत पसन्द करते हैं । नृत्यों की भारतीय वेश में साज सज्जा तथा भाव-भंगिमा उनको आकृष्ट करती है । वे प्रशंसा करते नहीं थकते । जब कि भारत में आजकल पाश्चात्य संगीत – विशेषकर नृत्यादि ही प्रचलित हैं।

मुझे तो ऐसे ही अनुभव हुए कि अपनी भाषा और अपनी वेश-भूषा हमारी पहिचान है । ये देश की अस्मिता को दृढ़ता प्रदान करती है । विदेशी भाषाएँ सीखना बुरा नहीं है । चाहे कोई कितनी ही भाषाएँ सीख ले किन्तु उसके सामने अपनी भाषा की उपेक्षा या तिरस्कार करना उचित नहीं है । हमें ये नहीं भूलना चाहिये कि अपनी भाषा , अपना वेश, अपनी संस्कृति , अपना राष्ट्रगान और अपना राष्ट्रध्वज ही हमारे स्वाभिमान की रक्षा करता है और विदेशों में भी वही भारत को गौरवान्वित करता है ।।
मातृभूमि भारतमाता की, एक राष्ट्रभाषा हिन्दी हो ।
बँधें सभी हम एक सूत्र में, भारत की संस्कृति की जय हो ।
गौरव से गूँजे हिन्दी-स्वर, हिन्दी तेरी सदा विजय हो।।

(साभार:वैश्विक हिंदी सम्मेलन)
                #शकुन्तला बहादुर, कैलिफ़ोर्निया

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।