मैकदा और मीना अच्छा लगता है

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salil saroj
प्यास कब से थी मरघटों सी मेरे लबों पे
तुझे पा के फिर से जीना अच्छा लगता है
तेरे चेहरे पे मुस्कान की कलियाँ यूँ ही खिलती रहें
तेरे लिए हज़ार ज़ख़्म भी सीना अच्छा लगता है
जो भी बूँद होके गुज़रे तेरे मदभरे लबों से
मुझे आवारा बादल सा उसे पीना अच्छा लगता है
तुम्हें सामने रखके देखूँ तो सब बदल जाता है
मैं बाखुदा हूँ,पर मैकदा और मीना अच्छा लगता है
मेरे नाम की नहीं तो न सही,पर ये तो सच है
तेरे मरहमी हाथों में रचा हिना अच्छा लगता है
#सलिल सरोज

परिचय

नई दिल्ली
शिक्षा: आरंभिक शिक्षा सैनिक स्कूल, तिलैया, कोडरमा,झारखंड से। जी.डी. कॉलेज,बेगूसराय, बिहार (इग्नू)से अंग्रेजी में बी.ए(2007),जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय , नई दिल्ली से रूसी भाषा में बी.ए(2011),  जीजस एन्ड मेरीकॉलेज,चाणक्यपुरी(इग्नू)से समाजशास्त्र में एम.ए(2015)।

प्रयास: Remember Complete Dictionary का सह-अनुवादन,Splendid World Infermatica Study का सह-सम्पादन, स्थानीय पत्रिका”कोशिश” का संपादन एवं प्रकाशन, “मित्र-मधुर”पत्रिका में कविताओं का चुनाव।सम्प्रति: सामाजिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार एवं ज्वलन्त विषयों पर पैनी नज़र। सोशल मीडिया पर साहित्यिक धरोहर को जीवित रखने की अनवरत कोशिश।

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