कविता – बुद्धम शरणं गच्छामि

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लुंबिनी में सिद्धार्थ ने जन्म लिया,
मात-पिता थे शुद्धोधन और महामाया।
सुंदर यशोधरा संग ब्याह रचाया,
राहुल को पुत्र के रूप में पाया।
राजकुल के सुखों को भोगते हुए,
मन में थे वैराग्य को पाले हुए।
बूढ़े, रोगी, मृतक देख विचलित हो गए,
संसार से विमुक्त संन्यासी देख आकर्षित हो गए।
सुंदर पत्नी, दुधमुंहे बेटे का मोह न बांध पाया,
सम्यक सुख-शांति के लिए परिवार को त्याग दिया।
छप्पन भोगों का त्याग कर भिक्षा माँगने लगे,
मन-शरीर साधने के लिए सिद्धार्थ तपस्या करने लगे।
वैशाखी पूर्णिमा के पावन दिन,
सफल हुई साधना ये हुआ भान।
पीपल का वह वृक्ष बोधिवृक्ष कहलाया,
गया की वह तपस्थली कहलाई बोधगया।
इस प्रकार सिद्धार्थ, सिद्धार्थ से बुद्ध बन गए,
संसार को सत्य-अहिंसा का उपदेश देने लग गए।
मध्यम मार्ग का उपदेश दिया,
पूरे विश्व में बौद्ध धर्म को प्रचारित किया।
बौद्ध धर्म के मार्ग पर जो हैं अग्रसर,
सब करते हैं इस मंत्र का उच्चार-
बुद्धम शरणं गच्छामि,
धम्मम शरणं गच्छामि,
संघम शरणं गच्छामि।

#अनुपमा धीरेंद्र समाधिया
इंदौर

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