औरत अपने जीवन में से नमक निकालकर खाने में कब डाल देती है वो खुद नहीं जानती..
और सालों साल जीती है स्वादविहीन जिंदगी…
हमारे यहाँ हर शख्स खूब सारे character certificate रखता है साथ में …किसी भी वक़्त ,हर कहीं ,किसी भी नुक्कड़ पे ,गली में ,चौराहे पर जरूरत पड़ सकती है …और हाँ फेस बुक पर भी।
इस एक काम को पूरी ईमानदारी और शिद्दत से निभाता है समाज और वो चार लोग….
जिनके कहने का डर पैदा होते समय से मरने तक बना रहता है।
एक औरत है, जो रेस्तरां चला लेती है
जो छोटे बच्चों को अकेले बड़ा कर लेती है
जो एक हाथ में करछी और एक में कार की स्टेरिंग रख लेती है..
वो सब कर सकती है ….
बस अपने अकेलेपन का साथी नही ढूढं सकती..
जिसकी खून पसीने की कमाई खा सकते हैं लेकिन उसका अकेलापन नही देख सकते। उसी के हाड़ मांस से बने बच्चे भी नही ।
सबसे पहले तो परिवार में वही बच्चा जो पापा को अपनी शादी पर मिस तो करता है लेकिन माँ के जीवन की शून्यता नहीं देख पाता।माँ को कटघरे में खड़ा तो करता है लेकिन ढाल नहीं बन पाता।तलवार बनकर उसके चीथड़े उड़ाने में सबसे पहला आदमी अपना खुद का बेटा हो तो फिर कहना ही क्या …
Once again…ये एक फ़िल्म बिल्कुल भी नहीं है ये दो अकेले लोगों का अकेला मन है जीवन है ।जो साथ होना तो चाहते हैं लेकिन दुविधा भी है ,समाज भी।
कहते हैं मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। लेकिन ये समाज सामाजिक बिल्कुल भी नहीं है। ये समाज किसी को दोबारा जीने का मौका नहीं देता।
पहला मौका भी किस्मत वालों को ही मिलता है
एक बार फिर…
नहीं ,क़भी नहीं,बिल्कुल नहीं…
शेफाली जी अपनी पूरी सुंदरता के साथ मौजूदगी दर्ज कराती हैं एक अकेली औरत है लेकिन बेचारी कही से भी नहीं ।साधारण होना जैसी सुंदरता कोई नही।
नीरज कबि जी अपनी पूरी संजीदगी के साथ इसमे एक पिता भी है और एक अकेले पुरुष भी ,ऐसा कौन होगा जो साथ ना चाहे।
चाहना गलत भी नहीं।
फ़िल्म एक लय में चलती है दरअसल आप जब इसे देखते हैं तो ऐसा लगता है कि घर की छत पर खड़े होकर पास के घर में सब होता हुआ देख रहे हैं।सब आसपास का जान पड़ता है ।नाटकीय कुछ नहीं लगता ।और बहुत शोर करने वाले इस समय में पत्थर पर मसाले ,चटनी पीसने की ,तड़के की और बहुत खूबसूरत फ़ोन पर एक दूसरे की शांत आवाज़ सुनाई देती है ….
और दोनों कलाकारों का सधा हुआ अभिनय नही है मानो सच में अकेलेपन की खामोशी को जीते नज़र आते हैं।आँखे ही ज्यादा बोला करती हैं वैसे अगर कोई पढ़ पाए।
तारा एक अकेली नही है ना जाने कितनी तारायें हैं जो मसाले हाथ से मसल कर उसे सूंघ कर ही खुश हो जाती हैं की महक है अभी।
भूत जब तक प्यार नहीं करता वो इंसान कैसे बनेगा…
चारों तरफ भूत ही भूत हैं या फिर बनिया ,जीने का मकसद ही हिसाब किताब !!
बाकी मुंबई है हर जगह और अपने पूरे खूबसूरत रूप में है खासकर मुंबई की रात ….
जो वाकई बहुत खूबसूरत होती है हंसती खिलखिलाती, जीवंतता से सरोबार…
समंदर के होने का बहुत घमंड है मुंबई को…
सहमति एक जर्रा है और असहमति पूरा आसमान…
मगर सुनो …एक बार फिर…
रश्मि मालवीय