आख़िरकार कब तक?      

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              devendra kumar pathak

  उतर गये पार संसार-सागर के,

  हर मोड़-पड़ाव से आगे,

  बहुत आगे;

  अब पकड़ से परे,

  जकड़ से दूर-

  दद्दा (पिता) हमारे….

  चार बरस पहले की वह तिथि

  राखी के अगले दिन लगते भादों प्रतिपदा

  कजलियों का त्यौहार था…….

  सुरक्षित है हमारी स्मृति की गठरी में,गठरी-

  उस दिन की स्मृति की

  जिसे बांधने-छोरने के बीच …….

  वे झूल रहे थे बड़े भिनसारे

  आम की डगाल पर झूला डाले,

  क़र्ज़ के मारे मिलती नोटिसों

  और उगाही से हारे उऋण हो गए थे

  अब हमसे कितना कुछ बोलते-बतियाते हैं  दद्दा,

  चार बरस पीछे से मानो

  कुछ हमें सिखाते-समझाते हैं…..

  दद्दा की सिखावान-बतकही,

  जो बरसों पहले नहीं समझी-सुनी कभी, न गुनी-धुनी,

  न कभी कुछ काम की बातें चुनीं…..

  हाँ, तब हम लिख-पढ़ लौटे थे शहर से,

  भरे थे ज्ञान-गुमान से,

  मन-ज़हन पर धरे थे पढ़ी पोथियों के पहाड़,

  जिनमें थे हमारी कामयाबियों के स्वप्न-शिखर,

  उपलब्धियों के भावी अक्षय भण्डार,

  डिग्रियों की टॉर्च लुपलुपाते,

  हम बरसों दिग-दिगन्त दौड़ते-भागते रहे,

  लिखित-मौखिक साक्षात्कारों में दौड़ते-हाँफते,

  हम हीचते-हारते,

  गहन भयावह भटकीली चक्करदार अन्धखोहों में

  उम्मीद की रौशनी खोजते,

  दुर्दिनों के जंगल,

  बेकारी के दलदल पार कर ही लेने के थोथे दम्भ से भरे,

  उम्मीदों की मृगतृष्णा के मारे,

  हताशा के तपते रेगिस्तानों में धँसते झुलसते,

  कभी सर्दअहसासों में कांपते

  अंतस में बेआवाज रोते-भीगते कितने- मौसम कितनी ऋतुएँ,

  बदलाव कितने ताज-तख्त के, बेरहम वक़्त के;

  जब हम चेते-चौंके,

  हो चुके थे पार उम्र की उस हद के,

  हैं अब बेकार, नाहक़ रहे वहम पोसते,

  अब दुखड़े रोते, पछतावे ढोते;

  क्यों न मानी सिखावन बऊ-दद्दा की!

  अब है साथ यादें उनकी…

  बैठे हैं पुश्तैनी खेत की मेड़ पर,

  झांई सी मारते दद्दा के कंठस्वर;

  अपलक खेत को ताकते,

  मोल उनकी सिखावन के आंकते,

  खेत के अंतर्मन में झांकते,

  जहाँ अब भी है सम्वेदना की नमी,

  मरने नहीं दिया हमें बाद बेकारी के.

  कभी नहीं रहे हमारे बाल-गोपाल,

  देह -ऊंघार, फोड़ती कपार नहीं रोई

  हमारी बेवा महतारी और न घरवाली,

  नहीं मांगने गए उधारी

  हम किसी बैंक-बनिये के देहरी- साँझ-सकारे,

  न रोये, न टसुये बहाये,

  खूब हीचे पर नहीं हारे,

  दुर्दिन नहीं गुजारे;

  हर हार को जीत में बदलने

  दद्दा की सिखावन थी साथ हमारे,

  हम पर रहते छाँव पसारे,

  धर्मपिता खेत हमारे;

  अब पाये हम बूझ

  बोली-बानी खेत माटी फसलों की,

  हवा-बादल धूप- बारिश सर्दी की,

  आंधी-अंधड़, धूल-बवंडर, हल-हंसियों,

  गैंती-फावड़ों, बेजुबान पंछियों-जनाउरों की;

  कैसे बतियाती है हमसे माटी खेतों की,

  हम पहचानते-जानते हैं आस-प्यास फसलों की,

  अलग-अलग मौसम-ऋतुओं में,

  आते-जाते पर्व-त्यौहारों,

  पाख-महीनों में,

  अलग-अलग होती है आदतें-चाहतें,

  माटी की फसलों की शिकायतें,

  अलग-अलग रंगत,स्वर, तौर-तेवर;

  कितने खाद की, कितनी है मियाद उसकी प्यास की,

  धूप कितनी,

  कैसी हवा उसे चाहिये!

  वह अनबोले बतियाती- पुकारती ,

  बताती है सुख-दुःख अभाव,

  आह-कराह हंसी-ख़ुशी घाव,

  करती है अपील सौंपती है ज्ञापन……

  आज सुबह ही उमगी-उमगी सी

  वह लगी ओस में नहाईं मुझसे बोली…..

  नहा-धो बाल सुखाकर हूँ मैं हुलसित

  कोंख में धारने को बीज-अन्न,

  आज ही जोतना-बोना है…….

  ले आओ बैल-हल, मारो डेंगूर-बक्खर,

  उलट-पलट जोतो, गंठीली जड़ें,

  हठीले खरपतवार काट-उखाड़ बीन-छांटकर

  निर्वारो सभी बाधा-व्यवधान;

  दो पखवारे बीच करो मेरा तन तर ब तर सींचकर,

  पखवारे बाद नींदा-गुड़ाई और फिर सींच ……

  पुष्ट बनें पौधे गोड-पांव से,

  तनें-बढ़ें और चढें आकाशीय ऊंचाई में………..

  बरोठे से सटी कुठरिया में

  पड़ी है बऊ बीमार,

  पकडे है हठ नहीं जाना हस्पताल

  पीती हैं कड़वा काढ़ा चिरायते का सुबह और साँझ.

  मेरा आना  आहटों से जान लेती हैं,

  ” जोतनी आय गै ना खेत ! आइन गवा होई ……”

  चीह्नती हैं बऊ,

  हाव-भाव अंदाज दक्खिनी पछुआ पुरवैया के,

  गरियार बैल हरहि गैया के,

  बादलों के तेवर मिजाज घटाओं के;

  महीनों  हुए खेत न गयीं

  पर सूँघ लेती हैं सौंधियाई माटी की गंध,

  धान के बिरवों में फूटती बालियों में

  भर आये दुधियाये अन्न की सुवास…….

  दद्दा के असमय जाने के बाद

  सीखा-जाना उन्हीं से किसानी के सारे हुनर ……

  अब बांध ली गठरी बऊ ने भी….

  गाज गिरने से पहले!

  जब आएगा तब,  आना तय है आदेश अधिग्रहण का,

  खुलेगी बड़े करोड़पति की फैक्ट्री

  सड़क पक्की टू लेन हो चुकी ….

  कैसे जीने का हुनर जान पाएंगे अब,

  नहीं रहेगी बऊ जब……!

  रूपया मिलेगा जब तक

  निकल चुकेगी बऊ तब तक

  और खेत भी अपनी छाँव समेट

  पुट्टी-प्लास्टर की फैक्ट्री में मर खप जायेंगे……

  अगली दीवाली कहाँ जलेगा दीप,

  कहाँ होगा उजाला

  और कहाँ होगा दाना-पानी

  कैसा होगा ठौर- ठिकाना?

  यह जबरिया कब्जेदारी कब तक,

  हमारे महतारी-बाप हैं ये खेत,

  विकास की डगाल पर

  फंदा डाल मरेंगे कब तक

  आख़िरकार कब तक?

  ===========

#देवेन्द्र कुमार पाठक ‘महरूम’

परिचय: म.प्र. के कटनी जिले के गांव भुड़सा में 27 अगस्त 1956 को एक किसान परिवार में जन्म। शिक्षा-M.A.B.T.C. हिंदी शिक्षक पद से 2017 में सेवानिवृत्त. नाट्य लेखन को छोड़ कमोबेश सभी विधाओं में लिखा ……’महरूम’ तखल्लुस से गज़लें भी कहते हैं। 2 उपन्यास, ( विधर्मी,अदना सा आदमी ) 4 कहानी संग्रह,( मुहिम, मरी खाल : आखिरी ताल,धरम धरे को दण्ड,चनसुरिया का सुख ) 1-1 व्यंग्य,ग़ज़ल और गीत-नवगीत संग्रह,( दिल का मामला है, दुनिया नहीं अँधेरी होगी, ओढ़ने को आस्मां है ) एक संग्रह ‘केंद्र में नवगीत’ का संपादन ‘ वागर्थ’, ‘नया ज्ञानोदय’, ‘अक्षरपर्व’, ‘ ‘अन्यथा’, ,’वीणा’, ‘कथन’, ‘नवनीत’, ‘अवकाश’ ‘, ‘शिखर वार्ता’, ‘हंस’, ‘भास्कर’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में रचनायें प्रकाशित.आकाशवाणी,दूरदर्शन से प्रसारित. ‘दुष्यंतकुमार पुरस्कार’,’पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी पुरस्कार’ आदि कई पुरस्कारों से सम्मानित। कमोबेश समूचा लेखन गांव-कस्बे के मजूर-किसानों  के जीवन की विसंगतियों,संघर्षों और सामाजिक,आर्थिक समस्याओं पर केंद्रित।

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