होली पर शोध

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shashank sharma1

आज व्यंग्यकार बनने के लिए मन अधीर हुआ,तो हो गया शुरु..,सोचा होली का माहौल है तो होली पर ही लिखा जाए। सोचना शुरू किया तो पहला प्रश्न आँखों के आगे आया कि, होली का मतलब है क्या?बचपन में नानी की जुबानी याद आई  कहानी कि,’हिरण्यकश्यप की बहिन हती होलिका बाके नाम पर धरो गओ नाम होली’..पर मन नहीं माना और शोध शुरु किया।
होली मतलब किसी की ‘होली’…,वैसे कवि ह्रदय लोग ही समझ सकते हैं कि,कैसे श्रंगार रस में तर प्रेम के रंग में रंगी सजनी अपने सजन की ‘होली’, वाकई अद्भुत है।
अंग्रेजी माध्यम में पढ़ रहे एक संस्कारी बच्चे को कहते सुना कि, होली को ‘होली-डे’ है। सच बताऊँ! दिमाग तब से कनफुजिया गया है कि, होली को ‘होली-डे’ है या ‘होली-डे’ को होली..

खैर,जो भी हो, ‘होली-डे’ में भी मस्ती होती है और होली के डे में भी। लगता है ‘होली-डे’ का नाम होली के डे पर ही रखा गया होगा।
फिर ध्यान आया कि, होली भारत का एक पवित्र त्यौहार है तो पवित्र का मतलब होता है ‘होली’। शायद अंग्रेजों ने भी अपने शब्दकोष का विस्तार भारत से ही किया हो।
होली पर इस शोध में एक और बात सामने आई कि, पवित्रता क्या होती है। पवित्रता तन की भी होनी चाहिए और मन की भी।
भले ही निगम की सीमा बढ़ गई हो,पर नल जल में तो हलाहल ही है।कमबख्त नल का भी कोई भरोसा नहीं,नहाना तो दूर धोने की भी समस्या है। ऐसे में कई लोगों ने तो ठण्ड के बहाने,पानी से परहेज ही कर लिया है..पर होली में तो इस तन में लगेंगे कई रंग,वार्निश,केमिकल युक्त रंग,देसी कीचड़ मिट्टी और न जाने क्या क्या? फिर उन्हें धोते-धोते पुरानी मैल की परत भी संग-संग धुलना ही तो है।
पहले के राजा-महाराजा भी कौन-सा साबुन लगाते थे! उलतानी- मुल्तानी ही सही थी तो मिटटी ही न!, उसी से तो नहाते थे। और आजकल जो साबुन बन रहे हैं,वो भी तो केमिकल के ही हैं। कौन-सा जड़ी बूटी के हैं, भले ही हरिद्वार से बन के क्यों न आए हों।
खैर,ख़ुशी की खबर ये है कि, होली के दिन दो बार नल आने वाले हैं,मतलब सब दिल खोल के नहाने वाले हैं। लो भाई हो गई न तन की पवित्रता होली के बहाने..,पर समस्या तो मन की है,क्योंकि ‘नहाए धोए क्या भला, जो मन मैल न जाए।’
पर उत्तर भी जल्दी ही मिल गया पुरानी होली की याद करके। कैसे कल्लू चाचा भंग के गन्नाटे में सन्ना के अपने दिल की भड़ास को बार- बार रट रहे थे। वो तो अच्छा हुआ कि, चमेली काकी ने सुनी नहीं,नई तो काका घर में घुसना क्या,खाना-पीना सब भूल जाते।
आजकल के जवान छोकरों ने तो वाकई सिद्ध कर दिया है कि, सही में होली मन की सफाई है। अरे छटाक भर उतरी नहीं हलक के नीचे और बन गए राजा हरिश्चंद्र की औलाद,पूरे साल भर की भड़ास निकाल ली। और अगले की क्या मज़ाल कि, कुछ बोले.. वरना हो गया बलवा। अब तो खिसियाए सिपाही  के लठ का प्रसाद मिलना ही है। पत्नी के तानों से परेशान बाल-बच्चों का त्यौहार छोड़ के आज के दिन बिना सुरापान किए ड्यूटी कर रहा है,तो काहे नहीं खिसियाएगा ।
इस दिन ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ है, लेकिन भैया लफड़ा मत कर लेना..।वरना देश के ख़िलाफ़ बोलकर भी नेता बन गए,और किसी के बारे में कहकर देखो-पूरे दांत हाथ में पकड़ा देगा आपके,भले ही देखने में दुबला पहलवान ही क्यों न हो। तो भैया सब सीमा के भीतर..छटाकभर सुरापान करके मन  ज्यादा ही पवित्र नहीं कर लेना।
खैर मुद्दे पे आते है कि,अब नवमी की क्लास के गणित के प्रमेय की तरह सिद्ध हो गया कि,अंग्रेजों ने होली शब्द भी भारत में होली मना के ही सीखा है और होली का त्यौहार तन और मन की पवित्रता का प्रतीक है।
इति सिद्धम…

#शशांक दुबे

लेखक परिचय : शशांक दुबे पेशे से उप अभियंता (प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना), छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश में पदस्थ है| साथ ही विगत वर्षों से कविता लेखन में भी सक्रिय है |

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