आजाद देश में आजादी की तलाश अभी भी जारी है। आजादी के पहले गुलामी एक
मुसिबत थी, अब आजादी एक आफत गई। बेबसी आज भी हम आजाद देश के गुलाम है।
व्यथा सत्ता बदली है व्यवस्था नहीं, स्वाधीन देश में
रोटी-कपडा-मकान-सुरक्षा-सुशासन और दवाई-पढाई-कमाई-भलाई-आवाजाई-भा
पराधीन होने लगी। यह सब मोहलते, सोहलते और जरूरते कब अधिन होगी। इसी
छटपटाहट में कहना पड रहा है कि हम कब होंगे आजाद! अगर ऐसा है तो यही दिन
देखने के लिए हमने अंग्रेजी हुकुमत से छुटकारा पाया था। या खुली आजादी
में जीने की तमन्ना लिए किवां अपने लोग, अपना शासन की मीमांसा में आजाद
भारत की अभिलाषा के निहितार्थ। लाजमी तौर पर स्वतंत्र आकांक्षा हरेक
हिन्दुस्तानी का मैतक्य था। जो क्षण-भंगुर होते जा रही है क्योंकि
स्वतंत्रता के पहले देश में देशभक्ति युक्त राष्ट्रीयता, एकता दिखाई देती
थी वह आज ओझल हो गई।
यकीनन, स्वतंत्रता से पूर्व स्वतन्त्र भारत हमारा सपना था। परन्तु आज
विकसित भारत हमारा सपना है। जो राष्ट्र को बेरोजगारी और भूख से मुक्ति,
अज्ञान और निरक्षता से मुक्ति, सामाजिक अन्याय और असमानता से मुक्ति,
बीमारी और प्रकृति विनाश से मुक्ति सबसे बढ कर सार्वभौम आर्थिक और
पश्चि्मी सभ्यता के प्रभावों से मुक्ति दिलाए बिना पूरा नहीं हो सकता। इस
जिम्मेदारी को निभाने की जवाबदारी हमारी है तभी सही मायनों में आजाद देश
में आजादी का परचम लहराएंगा।
राष्ट्रीयता की पुरानी कल्पना आज गतकालिन हो चुकी है। परवान
राष्ट्रधर्म औपचारिकता में राष्ट्रीय पर्व ध्वजारोहण और राष्ट्रगान तक
सीमित रह गया है। मतलब, असली आजादी का मकसद खत्म! चाहे उसे पाने के
वास्ते कुर्बानियों का अंबार लगा हो। प्रत्युत, अमर गाथा में हमें यह
नहीं भूलना चाहिए कि आजादी जितनी मेहनत से मिली है, उतनी मेहनत से
सार-संभाल कर रखना ही हमारा द्रष्टव्य, नैतिक कर्तव्य और दायित्व है।
मसलन, हम खैरात में आजाद नहीं हुए है जो आसानी से गवां दे। अधिष्ठान
स्वतंत्र आजादी की मांग चहुंओर सांगोपांग बनाए रखने की दरकार है। अभाव
में हर मोड पर हम कब होंगे आजाद की गुंज सुनाई देगी। आकृष्ट गुलामी से
आजादी अभिमान है जीयो और जीने दो सम्मान है यथावत् रखने की बारी हमारी
है।
हालातों के परिदृष्य फिरंगी लूट-खसोटकर राष्ट्र का जितना धन हर साल ले जा
रहे थे, उससे कई गुना हम अपनी रक्षा पर खर्च रहे है। फिर भी शांति नहीं
है, न सीमाओं पर, न देष के भीतर आखिर ऐसा कब तक कल के जघन्य अपराधी,
माफिये और हत्यारे आज सासंद व विधायक बने बैठे है। जिन्हें जेल में होना
चाहिए, वे सरकारी सुरक्षा में है। देश मे लोकतंत्र है, जनता द्वारा, जनता
का शासन, सब धोखा ही धोखा है। मतदाता सूचियां गलत, चुनावों में
रूपया-माफिया-मीडिया के कारण लोकतंत्र एक हास्य नाटक बन गया है। वीभत्स,
कब इस देश की भाषा हिंदी बनेगी संसद और विधानसभाओं में हिंदी प्रचलित
होगी न्यायालयों में फैसले हिंदी में लिखे जाएंगे
अहर्निश, देश में भ्रष्टाचार के मामलों की बाढ सी आई हुई है। नित नए
घोटाले सामने आ रहे है। बडे-बडे राजनेता, अफसर और नौकरशाह भ्रष्टाचार में
लिप्त है। उन्हें केवल सत्ता पाने या बने रहने की चिंता है। चुनाव के समय
जुडे हाथों की विन्रमता, दिखावटी आत्मीयता, झूठे आष्वासन सब चुनाव जीतने
के हथकण्डे है। बाद में तो ‘लोकसेवकों’ के दर्शन भी दुर्लभ हो जाते है।
बेरोजगार गांवों से शहर की ओर पलायन करने मजबूर है। यदि गांवों में
मूलभूत सडक, बिजली, पानी, शिक्षा, स्वास्थ, कौशलता और रोजगार की समुचित
व्यवस्था हो तो लोग शहर की ओर मुंह नहीं करेंगे, पर हो उल्टा रहा है।
शहरी व अन्य विकास के नाम पर किसानों की भूमि बेरहमी से अधिग्रहण हो रही
है। प्रतिभूत कृषि भूमि के निरंतर कम होने से अन्न का उत्पादन भी
प्रभावित होने लगा।
बदतर, स्त्री उत्पीडन कम नहीं हुआ है। आज भी दहेज-प्रताडना के कारण
बेटियां आत्महत्याएं कर रही है, अपराध बढ रहे है। लूट, हत्या अपहरण और
बलात्कार के समाचारों से अखबार पटे पडे रहते है। भारतीय राजनीति के विकृत
होते चेहरे और लोकतांत्रिक, नैतिक मूल्यों के विघटन से स्वतंत्रता का
मूलाधार जनतंत्र में ‘जन ही हाशिए पर चला गया और स्वार्थ केंद्र में।
बरबस देश की तरक्की की उम्मीद कैसे की जा सकती है! सोदेश्यता स्वतंत्रता
की अक्षुण्णता हम कब होंगे आजाद का आलाप संवैधानिक अधिकारों के जनाभिमुख
होने से मुकम्मल होगा, तरजीह आजाद देश में आजादी सराबोर होगी।
#हेमेन्द्र क्षीरसागर, पत्रकार, लेखक व विचारक