Read Time7 Minute, 36 Second
ये दिन कर्फ्यू के हैं
काव्य-संग्रह : स्वाति श्वेता
संस्करण : प्रथम 2018
प्रकाशक : भारत पुस्तक भंडार, दिल्ली
पृष्ठ संख्या : 100
मूल्य : 250 /- रुपए
***********************
संवेदनशील कवियित्री स्वाति श्वेता जी का सद्य प्रकाशित प्रथम काव्य संग्रह जिसमें आपने अपने आसपास नज़र आ रही संवेदन शून्यता को न सिर्फ़ देखा अपितु महसूस किया है। कविता जितना बाहरी यथार्थ रचती है, उससे कहीं अधिक अपने अंदर घुमड़ रहे द्वंद, आक्रोश, शोर को शब्दों में बयान करती है। वर्तमान में कविता का कलेवर बदला हुआ है। हेड लाइन खबरों की तरह सनसनी फैलाती लगती हैं अधिकांश कविताएँ। ऐसे में सम्बन्धों की पड़ताल करती और जीवन की कड़वी हकीकतों से रू-ब-रू कराती इन कविताओं का जायका देर तक याद रहता है और कल्पनाओं का संदल धीमे धीमे महकता रहता है पाठक के मन मस्तिष्क में।
अपनी पहली रचना से ही स्वाति जी ने पाठक की नब्ज पर हाथ रख दिया कहकर –
एक दिन शहर की बस्तियों से
घबरा कर
इस दिल ने दिमाग की बस्तियों में
घूमना चाहा।
जब दिल ने जायजा लिया उस बस्ती का, वहाँ की कलह, क्लेष, हिंसा, राजनीति की गन्दगी से घबरा कर भागा।
और अपने आप से फरमाया –
“शुक्र है कि मैं अब भी दिल ही रहा
दिमाग नहीं कहलाया।”
इस रचना में स्वाति जी ने कवि मन के जिन बिंबो से समाज के बिखराव को दिखलाया है, पाठक आश्वस्त हो गया कि आगे की राह पर स्वाति जी के साथ चलने में कोई कठिनाई नहीं होगी बल्कि उनकी नजरों से जमाने का नया रूप देखना एक सुखद अनुभव होगा।
‘मर्यादा’ रचना में जब उत्तर-आधुनिकता पर तीखा प्रहार हैं यह पंक्तियाँ –
लज्जा की अनेक तहों में लिपटी
मेरी आत्मा को
रात को छूते तुम्हारे हाथ
किसी दु:शासन से प्रतीत होते हैं
जब तुम ‘वाइफ स्वैपिंग’ की बातें करते हो।
वर्तमान में प्रतिस्पर्धा या स्वार्थ का भुजंग सम्बन्धों को फुफकारता, डसता दिखता है। ‘रिशतों’ को ऊहापोह बड़ी सहजता से उकेरा है स्वाति जी ने –
रिश्तों से घबराती हूँ
अपनी संवेदनाओं में
खुद-ब-खुद जमती चली जाती हूँ
मैं मुसाफिर हूँ उस सफर का
जहाँ अकेले ही चलते रहना है।
एक आम आदमी की रोजमर्रा तकलीफों और सरोकारों की बात कहने का अंदाज देखिए –
‘मुन्नी बदनाम हुई’
या फिर
‘शीला की जवानी’
व्यस्त था सोचने में वह
आगे की पंक्तियों में जीवन के छोटे मोटे वाकये और उलझने हैं। किसी को मतलब नहीं उनसे क्योंकि मुन्नी और शीला के सम्मोहन से बाहर नहीं निकल सकता है। यही तो हो रहा है आज। आवश्यकता, अविष्कार की जननी है की तर्ज पर पेट का दर्द भुलाने के लिए पैर पर प्रहार किया जाता है। दर्द अब पेट से निकल पैर में समा जाता है। आगे और बहुत हिस्से हैं अभी….. इसी भटकाव की बानगी हैं शीला और मुन्नी।
आपसी सद्भाव भूल जो मारकाट पर आमादा हैं लोग, प्रासंगिक है यह प्रश्न –
क्या है यह ?
षड़यंत्र!
उसके अपनों के खिलाफ
या है कोई सभ्य समाज का
नया तंत्र!
कितनी मासूम ख्वाहिश है इस ‘आवेदन’ में –
रहने को एक कमरा चाहिए
जिसमें प्यार का सीमेंट हो
अपनापन का पानी हो
संबंधों की मजबूती
ममत्व की छड़े हों
और दायित्व निभाने की निष्ठा हो।
कवियित्री के भीतर बैठे इंसान की चाहत का यह स्वरूप झिंझोड़ डालता है।
लगभग हर रचना में यही पीड़ा और विवशता को मुखरित करती दिखलाई देती हैं स्वाति श्वेता जी।
मैं भीड़ में चुपचाप खड़ी
अपने पार्थिव शरीर को
निरन्तर विश्वास दिलाती रही
कि रात की आवारा हवा
अब नहीं छू पाएगी तुझे।
.
.
.
अब न ही किसी इन्सानी बिच्छुओं
के डंक
मुझे और दर्द पहुँचायेंगे
और न ही कोई स्पर्श
मेरा वजूद मिटा पायेंगे
तारीख में मुझे कई बार
दर्ज करा दिया जाएगा।
स्वाति जी ने अपने आसपास की हर विषमता को, अलगाव को, विवशता को, विडंबना को और सच्चाई को सहेज लिया है अपनी 57 रचनाओं में। एक सचेत, संवेदनशील और मनोवैज्ञानिक परख से समृद्ध कवियित्री का यह ईमानदार प्रयास अपने लक्ष्य में शत प्रतिशत सफल रहा है। जहाँ कविता समाप्त होती है वहीं से आरम्भ होता है चिंतन। स्थिति पर बेबाक कलम से बने चित्र में अनगिनत रंग भरता है पाठक। हर बार लगता है अभी वो बात नहीं जिसे होना था और वो शब्दों के साथ बहुत दूर निकल आता है। सीधे चोट करने से अधिक कारगर है कुछ बातों, कुछ दृश्यों, कुछ प्रतीकों और कुछ अनुभूतियों से तीव्र कंपन उत्पन्न कर दिया जाये। उस कम्पन से उद्वेलित भाव जब शब्द बनें, अनुनादित हों और ध्वनि लौट लौट कर वापस आये।
यही किया है स्वाति श्वेता जी ने अपनी रचनाओं में। शब्दों से महसूस करा दिया है कि #ये_दिन_कर्फ्यू_के_हैं।
हृदय से बधाई एवम् शुभकामनाएँ इस संग्रह के लिए।
परिचय –
नाम :. मुकेश दुबे
माता : श्रीमती सुशीला दुबे
पिता : श्री विजय किशोर दुबे
सीहोर(मध्यप्रदेश)
आरंभिक से स्नातक शिक्षा सीहोर में। स्नातकोत्तर हेतु जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय के कृषि महाविद्यालय जबलपुर में प्रवेश। वर्ष 1986 से 1995 तक बहु राष्ट्रीय कम्पनी में कृषि उत्पादों का विपणन व बाजार प्रबंधन।
1995 में स्कूल शिक्षा विभाग मध्यप्रदेश में व्याख्याता। वर्ष 2012 में लेखन आरम्भ। 2014 में दो उपन्यासों का प्रकाशन। अभी तक 5 उपन्यास व 4 कथा संग्रह प्रकाशित। मंजिल ग्रुप साहित्यिक मंच भारत वर्ष द्वारा 2016 में लाल बहादुर शास्त्री साहित्य रत्न सम्मान से सम्मानित।
Post Views:
692