सूखे दरख़्त का ठूँठ

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sushil duggad
मैं  वो  सूखे  दरख़्त  का  ठूँठ  हूं,
जो  औरों  के बहुत काम आया ।
पड़ा   हूं  आज  मैं  बीच  राह  में,
ठोकरों का सिर पे इल्जाम आया।
जब  तक  जुड़ा  रहा  मैं  जड़ों से,
अपने  में  जहां  समेटे  खड़ा था ।
बदले   कई   मिजाज   मौसम  ने,
मैं  सदा  अटल अड़िग अड़ा था ।
कुछ   न  चाहत  थी  मेरी  अपनी,
सदा   जमाने  को  मैं  देता  रहा ।
बांटी   खुशियां   खुले   दामन  से,
उनके  जख्मों  को मैं सहता रहा ।
एक  दौर  गुजरा  था मेरी छांव में,
सच कहूं वो भी क्या जमाना था ।
ज़ुबाँ – ज़ुबाँ  पर  चर्चे  थे मेरे  भी,
आता-जाता राही मेरा दीवाना था।
मगर  आया  एक  दिन  ऐसा  भी,
वो  वक्त,  वो  कारवां गुजर गया ।
सूखे  पत्ते,  सूखी  टहनियां  सारी,
एक  आशियां  मानो उजड़ गया ।
आज  रह  गया  हूँ  सिर्फ  ठूँठ  मैं,
जमाने   को   मेरी  दरकार  नहीं ।
पड़ा  हूं  कभी  यहां  कभी वहां मैं,
कोई मेरे ‘स्पर्श’ को भी तैयार नहीं।
शिकवा  नहीं  कोई जमाने से मुझे,
जाते-जाते भी जान लुटा जाऊंगा ।
काट  के सजा लेना चौखट पे मुझे,
मैं  घर   की  शान  बढ़ा  जाऊंगा ।
#सुशील दुगड़ “स्पर्श”
अंकलेश्वर(लुहारिया)

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