लिखते-लिखते

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jitendra chouhan
16,14 की यति पर
तनिक नहीं संदेह भक्ति पर,
                      गर्व सदा कुर्बानी का|
लिखते लिखते चूक गया तू,
                  सच में सार कहानी का||
हे बादल उस दिन यदि तूने,
                  चेतक याद किया होता|
दिशा,दशा अब बदली होती,
              कुछ पल साथ दिया होता||
रानी को तू प्यारा था अरु,
                   रानी तुझको प्यारी थी|
सत्य बता उस समर भूमि में,
                    रानी किससे हारी थी||
दो क्षण सांसे रोकी होती,
             सिर झुकता अभिमानी का|
लिखते-लिखते……………….……….||
तेरे ऊपर दुर्गा थी अरु,
                   पृष्ट भाग पर दीपक था|
भारत की स्वर्णिम गाथा का,
                   शब्द-शब्द उद्दीपक था||
ये मन धीरज खोता है,
                 निज से सबला छली गई|
तस्वीरें कहती है कुछ तो,
                  मूक बधिर हो चली गई||
जब तक सूरज चंदा धरती,
                        गान रहे मर्दानी का|
लिखते-लिखते चूक…………………….||
 है प्रश्न तुझी से हे!तड़ाग,
                तू भी कुछ कर सकता था|
सोखा होता पानी खुद में,
                 लघुता को धर सकता था||
विजय वरण रानी को करती,
                     गाथा गूंजे अम्बर में||
काश!अगर ऐसा कर लेता,
                     होती पूजा घर-घर में||
लिखे गये है पृष्ट बहुत से,
                    जुड़ता अर्थ रवानी का|
लिखते-लिखते……………….…………..||
कैसा वह समय रहा होगा,
                    धरती माँ ओ धरती माँ|
अम्बर तू ही फट जाता तब,
                     रौद्ध रूप धर लेती माँ||
दीनबंधु तुम ही आकर तब,
                    उसका साथ निभा देते|
बनकर रानी की परछाई,
                रिपु को सबक सिखा देते||
तनिक सहारा  जो पाती तो,
                    रखती रूप भवानी का|
लिखते-लिखते……………….………….||
#जितेन्द्र चौहान “दिव्य”

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