पुस्तक समीक्षा- खामोशियों की गूँज, अदिति सिंह भदौरिया

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कागज़ पर कलम से खुद को सींचना यानी अदिति भादौरिया की कविताएं

-कमलेश भारतीय

अदिति भादौरिया फेसबुक पर मिलीं और पाठक मंच से भी जुड़ीं। एक पत्रिका की सहसंपादिका भी बनीं और लघुकथा में भी सक्रिय हैं। पहला पहला कविता संग्रह आया है- खामोशियों की गूंज।
आखिर इन खामोशियों की गूंज सुनी और यही लगा कि कवयित्री कह रही है कि कागज़ पर कलम से खुद को सींचती हैं अदिति यानी हर लेखक ।
कागज़ पर कलम से खुद को सींचती हूं मैं,
अश्कों के प्रवाह को सीने में भरकर देखा है,
क्योंकि खामोशी के शब्दों को मैंने
पलकों की स्याही से सोखा है।

अदिति की कविताओं में आम लड़की की चाहें , प्यार , गृहस्थी और समाज सब आते हैं । वे कहती हैं-
मैं पाना चाहूं वह उड़ान
जो आशाओं को थामेगी।

अदिति ने पति , परिवार और बच्चों पर अपने प्रेम की कवितायें भी इसमें शामिल की हैं । कुछ भी छिपाया नहीं । तभी तो कहती हैं :
हां छिपाना चाहूं तुझसे मैं जख्म अपने,
पर टूटा आइना कहे मुझे तेरा अक्स छिपाऊं कैसे ?

कोई भी लेखक समाज का ही अक्स दिखाता है, अपने आसपास का अक्स दिखाता है। कलम से अदिति कहती है-
न डरना , न घबराना तुम
शब्दों को बुनते जाना तुम ।

खामोशियों की गूंज में गज़लें भी हैं तो दो दो चार चार पंक्तियों की छोटी छोटी कविताएं भी और गीत भी, सपने पर लिखी कविता पहचान लिखी है और पहचान यह है कि :
आशा की किरणों को थामे
मैं राह अपनी चुनता हूँ,

छोटी छोटी कविताओं में से एक-

बनना चाहती हूं एक ऐसा आसमान, जहां मैं उड़ सकूं और सुन सकूं
वो धड़कनें जो मेरे दिल में भी धड़कती हैं ।

काश ! कोई समझ पाये
कि मौत सिर्फ चिता पर ही नही होती
बल्कि झूठी मुस्कुराहटें ओढ़ने से भी होती है ।

हंसने के लिए मुस्कुराहटें नहीं
बल्कि नकाब की जरूरत पड़ती है
आजकल,
लोग हैं चारों तरफ
फिर भी तन्हाई क्यों लगती है
क्यों भीड़ में खो जाती हूं मैं
हर पल बस अपनी ही तलाश में रहती क्यों हूं मैं ?

यह तलाश जारी रहनी चाहिए अदिति। इस पुस्तक की भूमिका लिखी है लालित्य ललित ने,
शुभकामनाएं । बधाई

कमलेश भारतीय, दिल्ली

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