चल दोस्त नदी के किनारे चलें,
भागकर घर से,
छुपते-छुपाते,बरगद तले चलें..
चल दोस्त नदी के किनारे चलें।
वो मुंडेर,जहाँ बीता करते थे
सारे दिन अपने,
बैठ के बुना करते थे बड़े बनने के सपने..
उस सपने की सच्चाई से दूर लौट, अपने बचपन में चलें..
चल दोस्त नदी के किनारे चलें।
वो दरारें स्कूल की,जिन्होंने
सँजोई है यादें अपनी,
वो झुकी ड़ाल बरगद की,
खोली है जिसने बांहें अपनी,
जहाँ हवा की लहरों में,
हमारे बचपन की कहानी चले..
चल दोस्त नदी के किनारे चलें।
हर वक़्त बसंत रहता था जहाँ,
खेत और खलियानों में,
जमती थी सबकी महफिल..
उन खुले मैदानों में,
वो सौंधी-सौंधी गंध गर्म भुट्टों की,
हमें पुकारे चलें..
चल दोस्त नदी के किनारे चलें।
पकड़कर हाथ,
नदियों को पार लगाते थे,
ऊंचे-ऊंचे पेड़ों से,
फलों को तोड़ लाते थे..
अनजाने पेड़ों पर बसाए हुए वो देव, शायद अब भी वही मिलें..
चल दोस्त नदी के किनारे चलें।
वो दोपहर,रास्ता देखते हमारा,
अब उदास-सी ढल जाती है..
हर शाम आँखों में आँसू लिए,
राह ताकती जाती है..
चल फिर उन रातों को,
चैन की नीदें सुलाने चलें..
चल दोस्त नदी के किनारे चलें।
गाँव के चौक के पंडाल,
जहाँ कितने ही किरदार निभाए..
वो साज ढूंढते हैं हमें,संग जिनके
गीत बचपन के गुनगुनाए,
वो किरदार,वो साज फिर आज
हमें पुकारे,चल चलें..
चल दोस्त,नदी के किनारे चलें।
#सुमित अग्रवाल
परिचय : सुमित अग्रवाल 1984 में सिवनी (चक्की खमरिया) में जन्मे हैं। नोएडा में वरिष्ठ अभियंता के पद पर कार्यरत श्री अग्रवाल लेखन में अब तक हास्य व्यंग्य,कविता,ग़ज़ल के साथ ही ग्रामीण अंचल के गीत भी लिख चुके हैं। इन्हें कविताओं से बचपन में ही प्यार हो गया था। तब से ही इनकी हमसफ़र भी कविताएँ हैं।