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बार-बार इनकार करने पर भी पीछा नहीं छोड़ती,तुम समय व स्थान का भी अनुमान नहीं लगाती,कब कौन-कहाँ-कैसी भी अवस्था में हो,तुम तपाक से आ जाती हो। लाख मना करने पर भी तुम्हारे कानों पर जूं नहीं रेंगती। उस दिन स्टेशन की सूनी बेंच पर तुम आकर बैठ गई। और तो और,बापू की धर्मसभा में भी तुमने मेरा पीछा नहीं छोड़ा। हजारों धमप्रेमियों के मध्य तुमने वहाँ आकर अच्छा नहीं किया। दोपहर की तेज गर्मी हो या बरसाती बयार,मौसम की नरमी हो या सुहानी साँझ। सदैव मेरी छाया-सी बनी रहती हो,ऐसा क्या हो गया है तुम्हें ?
तुम्हें तो मान-सम्मान की कोई परवाह हैं नहीं,मेरी तो कोई प्रतिष्ठा होगी न,तुम न रात देखती हो-न दिन। मेरे कार्यालय तक की तुम्हारी पहुँचने की हिम्मत कैसे हो जाती है,मेरे साथी कार्यकर्ता क्या सोचते होंगे,कभी सोचा है तुमने ? घर-परिवार के लोग मुझे सदा कोसते रहते हैं,उलाहना देते हैं,झगड़ा करते हैं फिर भी तुम इतनी ढीठ हो कि स्थिति को समझे बिना चली आती हो।
उस दिन मेरे निकटतम मेहमान आए थे,रात देर तक हम बतियाते रहे और तुम आ धमकी,क्या सोचा होगा उन्होंने ? लोग बातें बनाते हैं,गली-मोहल्ले में चर्चा का बाजार गरम हो जाता है, मेरे बाहर जाते-आते लोग अंगुलियां उठाते हैं,बातें करते हैं,नाक-भौं सिकोड़ते हैंl मैं शर्म के मारे पानी-पानी हो जाता हूँ,फिर भी तुम अपनी मेल-मुलाकात कम नहीं कर पाती,ऐसा क्यों ? पागल हो गई हो क्या ?
घर में बीवी-बच्चे-बहुएँ सभी हैं,लड़के-लड़कियों पर अच्छा प्रभाव नहीं पड़ता,उनके बीच अपमानित होना पड़ता है मुझे। कई बार ‘तू-तू-मैं-मैं’ हो जाती है,झगड़ा बढ़ जाता है,तो गली-मोहल्ले के लोग दर्शनार्थी बन जाते हैं। खिल्लियाँ उड़ाते हैं,इतना सब-कुछ होते हुए भी तुम्हारा दिल नहीं पसीजता,ऐसा क्या है जो तुम सन्तुलित नहीं हो पाती।
उस दिन एकादशी का व्रत था। पाठ-पूजा में बैठा था। माला-जप चल रहा था। वहाँ भी तुम आ गई। क्यों ? मेले में भी तुमने पीछा नहीं छोड़ा। सुबह-शाम,दिन-दोपहर कुछ भी नहीं देखा,और वहीं की वहीं बनी रहती हो। सारे मेलार्थी दाँतों-तले अंगुली दबाते रहे। कथा करने वाले स्वामीजी ने मुझे अलग से टोका और ढेर सारा उपदेश दे डाला,पर करता भी क्या ? शर्म से गरदन नीची करके उपदेश सुनता रहा और तुम्हें कोसता रहा। आखिर मैंने क्या बिगाड़ा है तेरा ? उस दिन होटल में बैठा ही था कि,तुम आ गई। समीप वाले ने खरी-खोटी सुनाई और कह दिया कि कुछ तो शर्म करो यार! तभी दूसरे सभी ठहाका लगाकर हँसने लगे और मेरा सिर नीचा का नीचा रह गया। तुम कितनी जिद्दी हो,तुम तो इतनी निष्ठुर और निकम्मी निकली कि अपनों की पीड़ा भी नहीं समझ पाती।
तुम कभी विचार तो करो,इस तरह कभी भी अचानक तुम्हारा आना,लम्बे समय तक ठहरना,भीड़ भरे सभा-सम्मेलनों में भी तुम्हारी उपस्थिति कितनी दुखदाई हो जाती है मेरे लिए। हाँ,इतना जरूर है कि मैनें तुम्हें अपनाया,साथ दिया,मान-सम्मान दिया,भरपूर समय दिया,तुम्हारे आ जाने के बाद किसी भी प्रकार का व्यवधान मुझे बर्दाश्त नहीं होताl यह जरूर है कि तुम्हारे न आने पर चिड़चिड़ा स्वभाव भी बन जाता है,सिरदर्द होना,बैचेनी बढ़ना,थकान और घबराहट होना सभी कुछ हो जाता है,फिर भी मर्यादा भी सामाजिक दस्तूर तो है न! लोग मेरी हँसी उड़ाएं,बातें बनाएं,चिढ़ाएं,पीठ पीछे गालियां दें,अपमानित करें,क्या तुम्हें अच्छा लगता है ? बोलो जवाब दो।
तुम्हें संयमित होना चाहिए,मर्यादा का पालन करना चाहिए, लोक-लाज से डरना चाहिए,समाज की नीति के अनुकूल बनना चाहिए,समय देखकर आना चाहिए। फिर लम्बे समय का ठहराव भी तो उचित नहीं लगता,कुछ समझा करो। सभी लोगों की यह स्थिति नहीं हैं। उनके पास भी तुम्हारी ही तरह आवाजाही रहती हैं,किन्तु निश्चित समय सीमा में। यों तुम्हारी तरह कभी भी-कहीं भी उनके पास इस तरह कोई आती-जाती नहीं हैं। देर रात में आकर जल्दी चले जाने का स्वभाव होता है उनका। यदि तुम भी रात के अँधेरे में जब कोई नहीं हो सभी का अलगाव हो जाए,तब धीरे से आकर ठहर जाओ,तो किसी को कोई एतराज नहीं होगा। फिर जल्दी भोर में चले जाना तुम्हारे और मेरे लिए हितकर होगा। अगर थोड़ी बहुत भी समझ है,तो दिन में कभी मत आनाl जब रिश्तेदार,मित्र-परिजन साथ हों तो देखा करो,तुरन्त चले जाना। हठधर्मी करके आसन मत जमा लेना,ऐसा करोगी तो तुम्हारा मान-सम्मान बढ़ेगा। उस दिन बस स्टैण्ड के मुसाफिरखाने में मैं अपने मित्रों के साथ बैठा,कुछ आप-बीती घटनाओं का वर्णन कर रहा था,तुम अचानक आ गई। मैनें तुमसे बचने की खूब कोशिश की,फिर भी साथियों को तुम्हारा एहसास हो गया और वे हतप्रभ रह गए। जब मैं अचानक चौंक उठा,तो उन्होंने कह दिया-कभी-कभी ऐसा ही होता है`। भविष्य में ध्यान रखने की सीख देते हुए वे आई बस में बैठकर चले गए। तुम्हें याद होगा,उस दिन मैं भारी बुखार से पीड़ित था। सिर में जोर का दर्द था। श्वांस रोग से अत्यधिक विचलित हो गया। हाथ-पैरों ने काम करना बन्द-सा कर दिया। चिकित्सकों का तांता लग गया,तब तुम नहीं आई। चार दिन तक पीड़ा भोगता रहा,किन्तु तुम्हारे दर्शन न रात में-न दिन में हो पाए। ऐसा क्यों ? दुःख के दिनों में तुम मुझे बिलकुल भूल गई।
वस्तुतः तुम अत्यधिक स्वार्थी हो,अपना सुख ही तुम्हारे लिए सर्वोपरि हैं। तुम उन दिनों अपना मुँँह तक नहीं दिखा पाई, फिर भला तुमसे क्या अपेक्षा की जा सकती है। यदि उस समय दिन में एक बार भी तुम आ जाती तो मुझे सुख मिलता। बीमार के लिए पलभर का सुख भी कम नहीं होता है,ठीक हैं कि नहीं।
एक दिन तो तुमने हद ही कर दी। आधी रात के भयंकर अँधेरे में मुझे साथ चलने को मजबूर कर दिया। मैं गाँव की गलियों में अनमना मौन साधे तुम्हें साथ लिए चलता रहा,फिर चलता रहा, चलता रहाl तभी किसी के सामने से आने की जोर की आहट सुनी तो अवाक रह गया और तेजी से भागकर वहीं पहुँचा,जहाँ से प्रस्थान किया था। याद हैं न तुम्हें ? बताओ फिर क्यों आई हो!
मेरी मानो तो एक बात कहूँ,तुम पढ़ते समय किसी विद्यार्थी के पास,माल बेचते समय व्यापारी के पास,पूजा करते समय पुजारी के पास,खेत जोतते समय कृषक के पास,सीमा पर पहरा देते सैनिक के पास तथा वाहन चलाने वाले चालक के पास और देश चलाने वाले नेता के पास बेसमय मत आया करो,ताकि वे देश का काम निर्बाध रूप से करते रहें,समझी न!
सुनो! अब ध्यान रखना,जब आओ तो धीरे से आना,हो-हल्ला हो रहा हो तो कहीं ठहर जाना। सभी चलें जाएं,तब आना और पूरा समय साथ रहकर रात के अन्तिम प्रहर में ही चले जाना। अच्छा,अलविदा,बुरा मत मानना।
कहा-सुना माफ करना निंदिया रानी…!
#शंकरलाल माहेश्वरी
परिचय : शंकरलाल माहेश्वरी की जन्मतिथि-१८ मार्च १९३६
तथा जन्मस्थान-ग्रामआगूचा जिला भीलवाड़ा(राजस्थान)
हैl आप अभी आगूचा में ही रहते हैंl शिक्षा-एम.ए,बी.एड. सहित साहित्य रत्न हैl आप जिला शिक्षा अधिकारी के रूप में कार्यरत रहे हैंl आपका कार्यक्षेत्र-लेखन,शिक्षा सेवा और समाजसेवा हैl आपकी लेखन विधा-आलेख,कहानी, कविता,संस्मरण,लघुकथा,संवाद,रम्य रचना आदि है।
प्रकाशन में आपके खाते में-यादों के झरोखे से,एकांकी-सुषमा (सम्पादन)सहित लगभग 75 पत्रिकाओं में रचनाएं हैंl
सम्मान में आपको जिला यूनेस्को फेडरेशन द्वारा हिन्दी सौरभ सम्मान,राजस्थान द्वारा ‘साहित्य भूषण’ की उपाधि और विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ से `विद्या वाचस्पति` की उपाधि मिलना भी हैl आप ब्लॉग पर भी लिखते हैंl उपलब्धि में शिक्षण व प्रशिक्षण में प्रयोग करना है। रक्तदान के क्षेत्र में काफी सक्रिय हैं। आपकी लेखनी का उद्देश्य-समाज सुधार, रोगोपचार,नैतिक मूल्यों की शिक्षा एवं हिंदी का प्रचार करना हैl
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