शायद आप अभिमन्यु दुधराज की मदद कर सकें। आपके माध्यम से इनकी तलाश पूरी हो सके।
वे १८ फरवरी २०१८ को लखनऊ पहुंचेंगे,वहाँ से समय निकालकर अपने पूर्वजों के गांव जाकर उनसे मिलना चाहेंगेl जब वे एक बार जड़ों से उखड़कर भारत से गिरमिटिया मजदूर बनकर गए तो फिर लौट न सके। आते भी तो कैसे ?,तब न तो ऐसे साधन थे और न ही ऐसी सुविधाएँ। न वैसी स्थिति थी कि अपने वतन लौट सकते। अपनों से बिछुड़ने की टीस लिए पीढ़ियाँ बदलती गईं। शायद कभी भारत आने का मौका मिले,शायद अपने बिछड़े परिजनों से मुलाकात हो सके। पीढ़ियों बाद दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर का एक सेवानिवृत्त प्राचार्य अपने पच्चीस वर्षीय परदादा के परिजनों और वंशजों की तलाश में एक बार फिर भारत आ रहा है। इतिहास आज भी वहीं खड़ा है,आज भी वही जानकारी जो कभी उनके दादा के पास थी। कई दिन पहले वैश्विक हिंदी सम्मेलन समूह पर टिप्पणियाँ देख रहा था कि एक संदेश पर निगाह पड़ी (नमस्ते, डॉ.गुप्ता…)l संदेश पढ़ते ही कबीरदास जी की ये पंक्तियाँ सहसा मेरे कानों में गूंजने लगी।
‘पत्ता टूटा डाल से ले गई पवन उड़ाय,अबके बिछड़े कब मिलैं,दूर परैंगे जाय।’ अभिमन्यु दुधराज, यही नाम है उस भारतवंशी का जो अपने बिछड़े परिजनों से मिलने को बेचैन है। भारत से गिरमिटिया मजदूर बनकर गए ज्यादातर लोग डरबन और उसके आसपास ही रहते आए हैंl वे भारतवंशी जो कभी तुलसीकृत रामचरितमानस के माध्यम से अपनी भाषा-संस्कृति और धर्म को संजोए रहे,आज वहीं दक्षिण अफ्रीका के हिंदी शिक्षा संघ’ के माध्यम से वे अपनी पीढ़ियों को अपनी भाषा से जोड़कर रखते हैं। यही वह प्रमुख सूत्र है,जिससे आज वे दक्षिण अफ्रीका के विभिन्न भागों में हिंदी सिखाते हैं और उन्होंने अपने धर्म और संस्कृति को भी इसके माध्यम से संजोकर रखा है,अपने दिल में बसाकर रखा है। इसके माध्यम से वे सांस्कृतिक और धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन भी करते हैं। हिंदी शिक्षा संघ द्वारा एक रेडियो स्टेशन भी चलाया जाता है,जिसमें भारतवंशी कार्यकर्ता के रूप में हिंदी और कई भारतीय भाषाओं के कार्यक्रम भी प्रस्तुत करते हैं। जब भारतवंशियों के सम्मुख दक्षिण अफ्रीका में विश्व हिंदी सम्मेलन का प्रस्ताव रखा गया तो न केवल उन्होंने उसे सहर्ष स्वीकार किया,बल्कि उनके लिए वह अपनी भाषा संस्कृति का बड़ा उत्सव था।
अभिमन्यू दुधराज,उनकी पत्नी शिक्षा दुधराज और बेटी प्रार्थना दुधराज से मेरी मुलाकात २०१२ में जोहान्सबर्ग में नवें विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान हुई। हमारी मुलाकात भारत से गए उन तमाम गिरमिटिया मजदूरों के वंशजों से हुई,जिनके पूर्वज सवा सौ-डेढ़ सौ साल पहले भारत से वहाँ गिरमिटिया मजदूर बनकर पहुंचे थे। उन्होंने ‘हिंदी शिक्षा संघ’ के माध्यम से भारत सरकार के साथ मिलकर इस सम्मेलन का आयोजन किया था। दक्षिण अफ्रिका के कई हिस्सों से विशेषकर डरबन से भारतवंशियों का एक पूरा बड़ा दल वहाँ पहुंचा हुआ था। यह अपनों से मिलने का,अपनी जड़ों को तलाशने का एक बहुत बड़ा अवसर था। भारत से आया हर कोई उनके लिए अपना था। वह अपनापन उन्हें हमारे करीब ले आया और हमें लगने लगा कि सदियों पहले बिछड़ों से मिल रहे हैं। जब उनसे मुलाकात और चर्चा हुई तो जल्द ही वे हमसे घुल-मिल गए। हमने भले ही उन्हें पराया कर दिया हो,लेकिन उनके मन में तो आज भी भारत उनके अपनों का,उनका देश है। भले ही आज वे दक्षिण अफ्रीका के नागरिक हैं और अपने देश को भरपूर प्रेम करते हैं लेकिन अपनी जड़ों को,भारत को दिल में बसाकर बैठे हैं। कुछ वैसी-सी स्थिति थी जैसे विवाह के पश्चात लड़की का घर बदल जाता है। भले ही परिजनों के लिए वह पराई हो जाए लेकिन उसके लिए तो उसका मायका सदा अपना घर रहता है। उन्होंने हमारे साथ तस्वीरें खिंचवाई,अदने दिल की बात कही,हमारी सुनी,उनका उमड़ता प्रेम और स्नेह हमें गदगद कर रहा था। भारत से गिरमिटिया मजदूर बनकर गए भारतवंशी मानो अपना सारा प्यार,स्नेह और आत्मीयता हम पर उड़ेल देना चाहते थे। उनके साथ उनकी बस में जोहान्सबर्ग से डरबन भी जाना हुआ। रास्ते भर ‘वक्रतुंड महाकाय’ और ‘हिंदी की जय ‘ के गीत,तमाम हिंदी धार्मिक आरती-भजनों से लेकर हिंदी सहित कई भारतीय भाषाओं के फिल्मी गीतों की अन्त्याक्षरी और उन पर थिरकते रात होते- होते बस कैसे डरबन पहुंची,पता ही न लगा। सदियों से बिछड़े अपनों से ऐसी यादगार मुलाकात कभी भुलाई नहीं जा सकती।
राशि सिंह,जिनसे सम्मेलन में पहली मुलाकात हुई थी और सुरीटासिंह,जिनसे बस में ही मुलाकात हुई,वे हमारी व्यवस्था में और हमें घुमाने-फिराने और मिलाने की जिम्मेदारी कब ले बैठे पता ही न लगा। सुरीटासिंह जो सदा के लिए प्रवासी बहन बन गई। ऐसा लग रहा था कि, भावनाओं का सैलाब बह रहा था और सब-कुछ उसमें बहा जा रहा था। स्मृति पटल से निकल जाने के बाद भी न जाने आज भी कितने ही नाम और चेहरे स्मृति पटल पर अंकित हैं।
एक पीड़ा जो भारत आने वाले भारतवंशियों के मन को अक्सर सालती है कि,आज भी उनके दिल में भारत बसता है लेकिन यहाँ आते हैं तो उन्हें कोई अपना नहीं मिलता। जो कभी अपने थे कहीं खो गए और अब कोई ऐसा नहीं जो उन्हें अपना माने। जैसे ही मुझे इस टीस का एहसास हुआ तो लगा कि सच में है तो बड़ी दुखद-सी स्थिति। मैंने तत्काल कहा-‘पहले ऐसा रहा होगा,अब तो मैं हूँ न,आपका अपने परिवार काl और अपनत्व के रिश्ते से बड़ा कौन-सा रिश्ता होगा।’ तब से अब तक वह रिश्ता यूं ही बना हुआ है। जब भी दक्षिण अफ्रीका के अपनों की खबर मिलती है,यादों को कुरेदते हुए मिलना-मिलाना होता है। और अब तो फेसबुक और व्हाटसएप पर भी मिलना-जुलना होता रहता है।
२०१६ में जब अभिमन्यु दुधराज भारत आए तो समय निकालकर मुंबई के दक्षिणी छोर से काफी दूर हमारे घर भी पहुंचे। घर पर अपनत्व का एहसास उनके हृदय में सदियों की टीस को सुकून-सा देता लग रहा था। हालाँकि,अब उनकी हिंदी हमारे जैसी तो नहीं, बोलते हुए प्रवाह टूटता है। आज भी उनकी भाषा में अवधी के कुछ शब्द आते हैं। इसके कारण उनकी बात मुझसे ज्यादा मेरी पत्नी डॉ. कामिनी गुप्ता समझ पा रही थीं। उन्होंने कहा-‘बताते हैं मेरे परदादा फैजाबाद के पास किसी गाँव से गए थे। अब पता नहीं कि वहाँ कौन होगा ? बिना जानकारी के जाएँ भी तो कहाँ`। बात इस मोड़ पर आकर समाप्त हुई कि जब अगली बार आएँगे तो अपने परदादा से संबंधित जानकारी लेकर आएँगे और अपने बिछड़े परिजनों,गाँववालों से जाकर मिलने की कोशिश करेंगे।
अपनी जड़ों को तलाशता,अपनी माटी की गंध लेने,उसे छूने, अपनेपन के एहसास को तलाशता भारतवंशी अभिमन्यु दुधराज भारत आ रहा है। शायद आपमें से कोई उनकी तलाश को पूरी कर सके।
#डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’