आस्था के साथ जुडी मानसिकता को परिवर्तित करना आसान नहीं होता। यही जुडाव जटिलता की ऊंचाइयों पर पहुंचकर परेशानियां पैदा करने का कारण बनता है। जुडाव को विस्त्रित अर्थों में लेना पडेगा। तर्कविहीन, विवेकविहीन और आधारविहीन मान्यतायें जब रूढियां बनकर अठखेलियां करने लगतीं है तब आदर्श, अन्धविश्वास में परिवर्तित हो जाता है। बस यही घातक है। अयोध्या विवाद का हल सामने आया। देश ने फैसले का खुले मन से स्वागत किया। विश्व विरादरी ने भी भारतीय न्याय व्यवस्था और न्यायाधीशों के विवेक की सराहना की। यह सुखद भविष्य के लिये एक सकारात्मक कदम माना गया। स्वाधीनता के बाद पहली बार ज्वलंत मुद्दों पर समाधान का पानी डाला गया। कश्मीर समस्या के मूल में स्थापित धाराओं पर कुठाराघात हुआ। आस्था के ठेकेदारों के मनसूबों को नस्तनाबूत कर दिया गया। फिर भी कुछ लोगों ने एक वर्ग का स्वयंभू नेता बनकर अशांति की आग सुलगाने की कोशिश की। अपील की बातें करके संवैधानिक संरचना पर ही प्रश्नचिन्ह अंकित करने की कोशिश की। सब कुछ शांत होने लगा तो फिर ट्रस्ट के स्वरूप और मस्जिद की जमीन को लेकर नये समीकरण बैठाने वाले सामना आये। सोशल मीडिया को हथियार बनाया गया। बातचीत के अंशों के नाम पर कुछ भी परोसा जाने लगा। पहले करना होगी विघ्नसंतोषियों से निपटने की तैयारी। उसके बाद ही सकारात्मक परिमामों का धरातल मजबूत हो सकेगा। चिन्तन चल ही रहा था कि फोन की घंटी बज उठी। काल रिसीव करने पर दूसरी ओर से जानेमाने विचारक भूपेन्द्र सिंह गर्गवंशी जी की आवाज उभरी। हमें सुखद आश्चर्य हुआ। एक लम्बे समय बाद उनका फोन आया था। सो कुशलक्षेम पूछने-बताने की औपचारिकताओं के बाद हमने अपने चल रहे विचारों से उन्हें अवगत कराया। एक क्षण शांत रहने के बाद उन्होंने कहा कि तंत्र को सशक्त करने का काम निरंतर किया जा रहा है। आहट से खतरे का आभास लिया जा रहा है। अन्तहीन दिखने वाली समस्याओं का समाधान निकालने का क्रम जारी है। सुखद है। वर्तमान में आनन्दित करने वाला है। भविष्य को संतुलित करने की आवश्यकता है। विघ्नकारी तत्वों के लिए कवच लगाना जरूरी है। हमने उनकी भूमिका और दार्शनिकता भरी विवेचना पर अल्पविराम लगाते हुए देश के अतीत पर वर्तमान की इबारत लिखने का निवेदन किया। निरंतर चल रही गति को मोड देते हुए उन्होंने कहा कि निर्विवाद भविष्य की स्थापना हेतु स्वर्णिम अतीत पर लगे ऐतिहासिक धब्बों के मिटाना आवश्यक है। स्वयं के वर्चस्व की स्थापना और अहम् की संतुष्टि के लिए चाटुकारों ने हमेशा से ही कांटे बिछाने का काम किया है। जयचंदों की न तब कमी थी और न अब है। इन्हें पहिचानना होगा, उनकी विचारधारा में धनात्कमता लाना होगी। मुख्यधारा के साथ जुडकर चलने का संतोष बताना होगा, तभी स्थायित्व स्थापित हो सकेगा। गूढ समीक्षा से बाहर लाने की नियत से हमने उनसे सरल भाषा में सूत्र देने का निवेदन किया। उनकी खिलखिलाती हुई हंसी हमारे कानों में पडी। जीवन के दर्शन को सीधे शब्दों का जामा पहनाते हुए उन्होंने कहा कि स्वाधीनता के बाद से जो नही हुआ, वह विगत 6 वर्षों में होता दिखा। यह सत्य है कि सकारात्मकता के झौंके हवा देने लगे हैं। परन्तु यह भी उतना ही सत्य है कि आम आदमी को अपने रोजगार, जीवकोपार्जन और भविष्य की चिन्ता से मुक्ति ही नहीं मिल रही है जो वह इस दिशा में सोच सके। कल की रोटी, बिटिया की शादी और रिश्तदारों की आवभगत की चिन्ता ही निम्न और मध्यम वर्गीय लोगों का पहला चिन्तन है। बाकी बचे वे लोग जो आस्था संतुष्टि के नाम पर अशान्ति परोस कर स्वयं महिमामंडित हो रहें है। यह उनका रोजगार है। इस रोजगार को उच्चवर्गीय लोगों से निरंतर पोषण मिलता है। पोषण बंद हो जाये तो मट्ठा पिलाने की जरूरत ही नहीं होगी कटीले पेडों को। इतनी सी बात लोगों को समझ नहीं आती कि आस्था पर संकट का ढिंढोरा पीटने वाले स्वयं आस्था संकट से जूझ रहे हैं। बात हो रही थी कि तभी कालवेटिंग में हमारे दफ्तर आने वाली काल के संकेत उभरने लगे। व्यवधान उत्पन्न होने लगा और फोन भी दफ्तर का था, इस कारण रिसीव करना भी जरूरी था और तब तक हमें अपने चिन्तन को गति देने हेतु पर्याप्त सामग्री भी प्राप्त हो चुकी थी। सो निकट भविष्य में इस विषय पर विस्तार से चर्चा के आश्वासन के साथ बात समाप्त की । इस बार बस इतना ही। अगले सप्ताह एक नये मुद्दे के साथ फिर मुलाकात होगी। जय हिंद।
# डा. रवीन्द्र अरजरिया