विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा हिन्दी और भारतीय भाषाओं की शोध पत्रिकाओं को सूची से बाहर कर देना अनुचित,अतार्किक और अव्यावहारिक निर्णय है। जब संविधान और राष्ट्र हिन्दी के साथ है,तो फिर आयोग को भारतीय भाषाओं से गुरेज क्यों है? अब समझ आया कि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग,यूनिवर्सिटी ग्रांट कमीशन यूजीसी (यूजीसी ) का सिर्फ हिन्दी अनुवाद है। जैसे इंडिया का अनुवाद `भारत`। वर्तमान भारत में अधिकांश विचार, अवधारणाएं और बौद्धिकता अनुदित ही हैं,इसीलिए हम वर्षों से संज्ञा का भी हिन्दी या अंग्रेजी अनुवाद करते आ रहे हैं। अपने देश को अंग्रेजी में इंडिया और हिन्दी में भारत कहते आ रहे हैं। यह विसंगति,यह विडंबना और यह दुर्भाग्य दुनिया के शक्तिशाली देश भारत में क्यों है? सवाल कई हैं? सबसे बड़ा सवाल यह है कि,इस देश का दिमाग इंडियन है या भारतीय? भारत का भाग्यविधाता आज भी इंडियन ही है! भारत भले ही अपनी भाषा में सोचता हो,गुनता-बुनता हो, भारत का भाग्य विधाता इसे अंग्रेजी में धुन देता है। भाग्य-विधाता अंग्रेजी में ही सुनता है,बोलता है और देखता है। भारत की नियति भले कुछ हो,भाग्य विधाता की नीयत में अंग्रेजी है। भाग्य विधाता का तांडव कब तक रहेगा,यह आजादी के 70 और गण्तंत्र के 67 वर्षों बाद भी मौजूं हैl भारत की उच्च शिक्षा का भारतीयकरण करने की आवश्यकता इसलिए है कि,यह पूर्णत: अ-भारतीय है। अंग्रेज देश छोड़ने के पूर्व शिक्षा के सम्बन्ध में जो षडयंत्र रच गए, शिक्षा भाग्य-विधाता उसे बखूबी अंजाम दे रहे हैं। इसे यूजीसी जिसे हिन्दी में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग कहा जाता है के ताजा आदेश से भली-भांति समझा जा सकता है। आयोग ने शिक्षकों की भर्ती और करियर एँडवांसमेंट स्कीम के लिए न्यूनतम योग्यता निर्धारित करने के लिए 10 जनवरी 2017 को नई अधिसूचना जारी की है। यह संशोधन विश्वविद्यालयों के पीएच-डी अध्येताओं पर भी लागू होगा। अर्थात अंग्रेजी में शोध-पत्र प्रकाशित करने वाले ही सहायक अध्यापक (असिस्टेंट प्रोफेसर) बन सकेंगे या फिर पहले से ही नियुक्त शिक्षकों को करियर एडवांसमेंट का लाभ मिल सकेगा। उल्लेखनीय है कि,आयोग ने अभी तक रेफरीड रिसर्च जर्नल्स में प्रकाशित शोध पत्रों के प्रकाशन के लिए 15 और नान-रेफरीड जर्नल्स में प्रकाशन के लिए 10 अंक निर्धारित किए थे। अब नई अधिसूचना के अनुसार रेफरीड रिसर्च जर्नल्स में प्रकाशित शोध पत्रों के प्रकाशन के लिए 25 और नान-रेफरीड जर्नल्स में प्रकाशन के लिए 10 अंक ही निर्धारित किए हैं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि यूजीसी की अधिसूचना में 38,653 शोध पत्रिकाओं की सूची दी गई हैl साथ ही यह भी निर्देशित किया गया है कि,उन्हीं शोध अध्येताओं की उपाधि वैध मानी जाएगी,जिनका शोध-पत्र इन सूचीबद्ध पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ है। यहां यूजीसी के छल को समझने की जरूरत है। उच्च शिक्षा की नियामक संस्था यूजीसी ने भारतीय भाषाओं की शोध पत्रिकाओं को अस्वीकार कर यह सुनिश्चित कर दिया है कि,भारतीय भाषाओं में शोध और अध्ययन-अध्यापन करने वालों का भूत,वर्तमान और भविष्य अंधकार में है। उन्होंने यह सिद्ध कर दिया है कि,भारतीय भाषाओं में प्राप्त विद्या,ज्ञान और शिक्षा प्रकाश से अंधकार की ओर ही ले जाएगी! सिर्फ अंग्रेजी और विदेशी भाषाओं की शिक्षा ही प्रकाश की ओर ले जा सकती है! इसे कोई भी समझ सकता है कि,आयोग का भारतीय भाषाओं और हिन्दी के प्रति उपेक्षा भाव क्यों है? जब आइएसएसएन (इंटरनेशनल स्टैण्डर्ड सीरियल नम्बर) की अर्हताओं,नियम व शर्तों के अनुरूप भारतीय भाषाओं में अनेक शोध पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं,तो इन्हें योजनापूर्वक सूची से बाहर रखा गया है। रिसर्च जर्नल्स की सूची निर्णायक समिति में अंग्रेजी के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा के विद्वानों को नहीं रखना भारतीयता विरोधी मानसिकता और षडयंत्र का ही परिचायक है। आयोग ने इस बात का तनिक भी विचार नहीं किया कि,जिन विद्यार्थियों ने भारतीय भाषाओं में शोध कार्य अथवा प्रकाशन किया है, या कर रहे हैं,उनका अकादमिक भविष्य क्या होगा? जब हिन्दी,संस्कृत,उर्दू,अरबी,फारसी,तमिल तथा तेलगू आदि भाषाओं में गुणवत्तापूर्ण शोध,लेखन और प्रकाशन आदि हो रहा है,तो फिर किन कारणों से आयोग ने इन्हें अमान्य कर दिया है? क्या भारतीय भाषाओं में उच्च शिक्षा और उच्च शिक्षा में भारतीय भाषाएं नकार दी गई हैं? निश्चित ही आयोग के इस निर्णय से विदेशी और अंग्रेजी भाषाओं में प्रकाशित रिसर्च जर्नल्स को प्रोत्साहन तो मिलेगा,किंतु भारतीय भाषाओं में प्रकाशित शोध पत्रिकाएं अपना अस्तित्व ही खो देंगी। जब अस्तित्व ही नहीं होगा,तो पहचान और गुणवत्ता का विषय स्वयं ही समाप्त हो जाएगाl आश्चर्यजनक बात यह है कि,द्वारा जारी की गई हर सूची में केवल तीन इन्डेक्सिंग एजेन्सी क्रमशः डब्ल्यूओएस (न्यूयार्क), स्कोपस (यूएसए) और इंडेक्स कपरनिकस इंटरनेशनल द्वारा सूचीबद्ध जर्नल्स के अतिरिक्त अन्य किसी जर्नल्स (शोध पत्रिका) को स्थान ही नहीं दिया गया है। क्या आयोग के पास शोध पत्रिकाओं की गुणवत्ता जांचने या निर्धारित करने के लिए विशेषज्ञों का कोई समूह और कोई प्रक्रिया है? सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि भारत में जहाँ `मातृभाषा हिन्दी` है,जहाँ सरकार और राज्य सरकारें हिन्दी संरक्षण की बात करके हिन्दी दिवस और पखवाड़े मनाती हैं,मध्यप्रदेश सरकार ने हिन्दी में सभी विषयों के गुणवत्तापूर्ण अध्ययन-अध्यापन के लिए अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना की है, वहां देश की उच्च शिक्षा की नियामक संस्था द्वारा भारतीय भाषाओं की शोध-पत्रिकाओं को तिरस्कार की दृष्टि से देखना उनकी भारतीयता के प्रति उनकी घृणा, कटुता, भेद-भाव, दुराग्रह और षडयंत्र को ही प्रदर्शित करता है। आयोग के इस निर्णय से मध्यप्रदेश सरकार द्वारा स्थापित अटल बिहारी वाजपेयी हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना के औचित्य और भविष्य पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है। विचारणीय तथ्य यह है कि शोध को बढ़ावा देने के लिए प्रायः नियम सरल बनाए जाने चाहिए,इसमें अकादमिक व बौद्धिक मूल्यों को प्रधानता दी जाना चहिए,किन्तु आयोग (यूजीसी) के इस आदेश ने शिक्षा जगत में न केवल ज़टिलताओं और आर्थिक कठिनाइयों को बढ़ावा दिया है,बल्कि भारतीय भाषाओं और हिन्दी के माध्यम से अपना बौद्धिक व अकादमिक व्यक्तित्व विकसित करने वालों के उपर कुठाराघात किया है। एक बड़ा सवाल यह भी है कि,जिन शोध अध्येताओं ने हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं की शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित शोध-पत्रों के आधार पर विद्यावारिधि (पीएच.डी.) की उपाधि प्राप्त की है उनका भविष्य क्या होगा? आयोग (यूजीसी) ने शोध पत्रिकाओं के चयन के लिए सिर्फ तीनों विदेशी संस्थानों की राय को ही मान्य किया हैl यह न तो न्यायसंगत है,न ही तर्कसंगत। ऐसी स्थिति में भारतीय भाषाओं,विशेषकर हिन्दी की शोध पत्रिकाओं का क्या होगा,भारतीय विषयों और मूल्यों का क्या होगा? भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक ही नहीं,अकादमिक-बौद्धिक विकास में भारतीय भाषाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। ये भाषाएँ ही भारतीयता की वास्तविक और व्यापक अवधारणा की न सिर्फ समझ विकसित करती हैं,बल्कि इसे पल्लवित-पुष्पित भी करती हैं। आज़ादी के नायकों का सपना था,गुलामी जाएगी तो स्वाधीनता आएगी,सिर्फ राजनीतिक ही नहीं वैचारिक-बौद्धिक और भाषाई स्वराज्य भी स्थापित होगा। भारतीय भाषाओं को अस्वीकार करके भारत के उज्ज्वल अकादमिक व बौद्धिक विकास की कल्पना संभव नहीं है। भारतीय भाषाएं ही अंधकार से प्रकाश की ओर ले जाने में सक्षम हैं,लेकिन यूजीसी ने यह क्या कर दिया? भारत को अंग्रेजी के रास्ते अंधकार के कुएं में धकेलने का षडय़ंत्र रच दिया है! यहां सवाल अंग्रेजी के विरोध का नहीं,भारतीय भाषाओं के भविष्य का है। इस अ-भारतीय आदेश के खिलाफ देश चुप नहीं बैठेगा। देश भारत के प्रधानमंत्री,गृहमंत्री,मानव संसाधन विकास मंत्री सहित भारतीय भाषाओं के तमाम हितचिंतकों से यह सवाल पूछ रहा है कि,उनके रहते यूजीसी ने ऐसी अ-राष्ट्रीय हिमाकत कैसे की,क्यों की,किसके इशारे पर की? देश तमाम देशभक्त राजनीतिक दलों,संगठनों और संस्थानों से भी जवाब मांगेगा। बौद्धिक व वैचारिक संगठनों को तमाम विद्यार्थी,शोधार्थी, अध्येता और आचार्य (शिक्षक) कटघरे में खड़ा करेंगे। जब समूचा राष्ट्र भारतीय भाषाओं के साथ है,फिर सत्ता की इस चुप्पी का राज क्या ?
#डॉ. अनिल सौमित्र