दिल-ओ-दिमाग से बहिष्कृत हो मृत्युभोज नामक कुरीति,इस आंसुओं से भीगी दावत का बहिष्कार किया जाना चाहिए क्योंकि, दोस्तों एक तरफ तो हम इंसान चांद, मंगल और प्लूटो पर पहुंचकर अपनी असीम मानसिक क्षमता का परिचय दे रहें हैं,तो दूसरी तरफ़ ऐसा भोज..! हाल ही में चीन देश में एक समय मानव (जिसके हाथों से दिव्य प्रकाशिक किरणें निकल रहीं थी) ने सड़क पर जा रहे रिक्शा चालक की भयंकर सड़क दुर्घटना होने से पहले ही एक सेकण्ड से भी कम समय में रक्षा की। मतलब उस चालक को प्रकाश की गति से भी तीव्र गति से अचानक प्रकट होकर रिक्शे सहित सड़क के दूसरी तरफ रख दिया। यही नहीं, मशहूर हास्य अभिनेता चार्ली चैपलिन की पहली फिल्म के प्रमोशन के वीडियो को ध्यान से देखा गया तो, उस वीडियो में एक महिला फोन पर बात करते हुऐ दिख रही है,जबकि उस समय मोबाईल फोन का आविष्कार नहीं हुआ था तो सोचो यह विचित्र मानव कौन है। दोस्तों यह समय यात्री है। भविष्य के उन्नत मानव,जिन्होंने समय को भी जीत लिया है। जरा सोचिए,मानव जाति आज अपने उन्नत परग्रही पूर्वजों से मिलने के समीकरण तैयार कर रही है,अपने देश की महामशीन से वैज्ञानिक वह दिव्य सूक्ष्म कंण ढूंढ रहे हैं जिससे पृथ्वी बनी। आज दुनिया तेजी से आगे बढ़ रही है,हम धोती-कुर्ता को त्याग जींस पेंट पर आ गए, पट्टी कलम-दवात से टेबलेट और लेपटॉप पर आ गए तो चिट्ठी-पत्री से मेल,फेसबुक और व्हॉट्स-एप पर आ गए। यहां तक ही नहीं,कल के गुस्से वाले मां-बाप आज फ्रेण्ड बन गए।देखो समय के साथ-साथ समाज में कितना कुछ बदल गया,पर दुःख इस बात का है कि, मरणोपरान्त होने वाला यह मृत्युभोज खिलाने की परम्परा क्यों नहीं बदली?हम तो बदले,पर हमारे साथ समाज के रुढ़ी विचार आखिर ! क्यों नहीं बदले। पूरे गांव को तेरहवीं खिलाकर खुद कर्ज में डूबकर भूखों मरने की नौबत आ जाती है,वह मंजूर है पर इस कुप्रथा को सब मिलकर बन्द नहीं करा सकते हैं,जबकि इस अंधविश्वासी निंदनीय कुप्रथा का समाज से पलायन होना बहुत आवश्यक है। आप ही बताइए, किस धार्मिक ग्रंथ में लिखा है कि, मृत्युभोज अनिवार्य है..। धरती पर भगवान नारायण के किस अवतार ने बोला कि,तेरहवीं अनिवार्य है? फिर कहां से, और क्यों शुरू की गई यह कुरीति। धर्म के कुछ ढोंगी ठेकेदारों ने निज हित में इस कुप्रथा को जन्म दिया, पर अब तो सभी साक्षर हैं, बुद्धिजीवी हैं तो क्यों नहीं उठती वो आवाज जिसमें सभी का हित है।आपको पता होगा कि,अपने हिन्दू धर्म में 16 संस्कार हैं,जिसमें पहला गर्भाधान संस्कार अंतिम सौलहवां अंत्येष्टि संस्कार है,तो फिर बताईए ये सत्रहवां संस्कार कहां से प्रकट हुआ..। आप और हम मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान श्री रामचन्द्र जी में आस्था रखते हैं न, आपको पता ही होगा कि उनको जब अपने प्राणप्यारे पिता के स्वर्गवासी होने का पता चला तो वह जंगल में ही शांत बैठ गए और वचन की लाज रखते हुए अयोध्या नहीं लौटे ।उन्होंने एक ही वक्त कंदमूल फल- खाकर पूरे 12-13 दिन शोक मनाया। यही नहीं,पूरी अयोध्या में महीनों किसी घर कड़ाही नहीं चढ़ी,फिर मृत्युभोज का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।अब सोचिए, हम राम जी को तो मानते हैं, पर उनके चरित्र का कितना अनुसरण करते हैं बोलिए।हम उनके नाम पर राजनिति करते हैं कि,राम मंदिर बने…अरे ,दिल में तो राम मंदिर बनाओ तो समाज में कुछ उन्नत परिवर्तन हो सकें।हमारे देश में इस मृत्युभोज नामक सामाजिक कैंसर ने न जाने कितने ही गरीब परिवारों को कर्ज में डुबोकर काली नींद सुला दिया है। समाज के इस तेरहवीं नामक वायरस ने आज देश की वो हालत की है कि, गरीब ‘त्राहि माम…’ कर रहा है ।आपको पता ही होगा कि,मृत्युभोज में कम-से-कम 25-30 हजार रुपए का कर्ज आता है। अगर यही आंकड़ा लेकर चलें तो 33 लाख मृतकों के मृत्युभोज में लगभग 50 अरब 60 करोड़ रूपए प्रतिवर्ष खर्च होते हैं। दिखने में छोटी यह धनराशि इतनी बड़ी है, जितना कुछ छोटे राज्यों का सालाना बजट होता है। बताओ,देश का गरीब कैसे अपनी प्रगति करे जब यह कुप्रथा उसका दामन नहीं छोड़े। दोस्तों, यह दकियानूसी विकृत मानसिकता और यह अतिरुढ़िवादी सोच हमेशा से ही हमारे देश की प्रगति और विकास में बाधक रहे हैं। तब तो राजा राममोहन राय और स्वामी दयानंद सरस्वती,स्वामी विवेकानंद जी जैसे महान समाज सुधारकों ने समाज में बदलाव की एक लम्बी लड़ाई लड़ी और दृढ विश्वास से आखिर वो कामयाब भी हुए। आज वो लोग तो हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी प्रेरणा से हम स्वंय ही बदलकर एक नई शरूआत कर सकते हैं। आपने देखा ही होगा कि, तेरहवीं पर रो-रोकर ही गेहूं छाना-फटका जाता है। रोते हुए ही खाना बनता है और नम आंखों से ही परोसा भी जाता है। क्या हम लोगों के दिल पाषाण हो गए ,जो हम-आप आंसूओं से भीगा भोजन कर आते हैं। जरा पशुओं को देखो कि,उनका साथी बिछुड़ जाए तो वो घास पत्ती तक नहीं छूते..और हम इंसान इतने निर्दयी कब से हो गए कि,भाई की मौत पर भाई ही मृत्युभोज में पकवान खा रहे हैं।|दोस्तों, क्या हम मानवजाति पशुओं से भी ज्यादा नीचे गिर गई है? भगवान श्री कृष्ण जी ने महाभारत के समय कहा है कि जब भोजन कराने वाला प्रसन्नचित्त हो ,तभी उस घर भोजन करो अन्यथा अपनी सोच दूषित और मति भ्रष्ट हो जाती है। हम हिन्दू न तो भगवान राम को मानते हैं,न ही भगवान श्री कृष्ण जी को..हम तो बस अपने फायदे को ही अपना भगवान मानने लगे हैं। एक सच्ची घटना है,मेरे घर के पास ही तीन भाई और पिता रहते थे।पिता ने अपना सब बड़े लड़के को दे दिया और बीच वाला बेटा मजदूरी करके पेट भरता था।बाद में शादी करके दिन काट रहा और सबसे छोटा वाला भाई बेरोजगार दिनभर घूमता, न दोनों भाई मदद करते, न ही पिता। बेचारा थोड़ा-बहुत कमा भी लेता तो, सब उसका पैसा छीन लेते कि तेरी कौन-सी घर- गृहस्थी है। अंतोगत्वा वह बीमार पड़ गया तो,उसकी किसी ने कोई देखभाल नहीं की।ऐसे में 25 साल का वह जवान भाई गर्मी के बुखार से मर गया। उसकी मौत पर सब दहाड़े मार-मारकर रो रहे थे। आश्चर्य तो तब हुआ,जब पूरे गांव के लिए उसकी भव्य 50 हजार रूपए की तेरहवीं की गई। ईमानदारी से आप ही बताईएगा कि,क्या पचास हजार रूपए से उसको कोई दुकान नहीं खुलवाई जा सकती थी,क्या उसका उचित ईलाज और अच्छा भोजन-कपड़े नहीं मिल सकते थे। बहुत दुःख होता है, समाज की इस झूठी शान और झूठे दिखावों को देखकर। इस मृत्युभोज से बोलो किसका भला हुआ, न ही मरने वाले का और न ही उस गरीब कर्जदार परिवार का। हाँ,भला हुआ सिर्फ उनका जो इस कुप्रथा को बढ़ावा देकर अपनी जेब और पेट दोनों ही भर रहे हैं ,और गरीब को कर्ज के बोझ से आत्महत्या को विवश कर रहे हैं।आखिर,कब सुधरेगें हम! आखिर यह मौन कब तोड़ेगे हम ? अब समाज अनीति और अन्यायरूपी फायदे लेना बन्द करे तथा आंसूओं से भीगी दावत यानि मृत्युभोज या तेहरवीं जैसी सभी कुप्रथाओं का इक सिरे से बहिष्कार हो। यह किसी को कोई पुण्य देने वाली रीति नहीं, बल्कि दैहिक दैविक और भौतिक कष्टों में उलझाने वाली एवं पतन के मार्ग पर ले जाने वाली खतरनाक बला है। इसकॊ पहले अपने दिलो-ओ-दिमाग से पलायन कराना होगा।दोस्तों घर हमारा है,परिवार हमारा है,यह प्यारा देश हमारा है,तो इसे सुन्दर बनाने की जिम्मेदारी भी तो हम-आपकी ही है।यह पहल भी हम,आप और सम्पूर्ण युवा समाज को करनी होगी,तभी हम बदलावरुपी सूर्य के दर्शन कर पाएँगे।तभी हम आगे आने वाली पीढ़ियों के सुनहरे उन्नत भविष्य की कल्पना कर पाएँगे।
#आकांक्षा सक्सेना
परिचय : लेखन की दुनिया में आकांक्षा सक्सेना अब प्रचलित नाम है। विविध विषयों और खास तौर से परिवार तथा समाज के लिए आप लिखती हैं। कानपुर विश्विद्यालय से शिक्षित आकांक्षा सक्सेना काफी समय से ब्लॉग पर भी लिखने में सक्रिय हैं।
मृत्युभोज एक सामाजिक कुरीति हैं।इसे खत्म करना अनिवार्य है अन्यथा यह गरीब वर्ग को कभी उन्नति करने नहीं देगा।
मेरे पिता भी मृत्युभोज के खिलाफ थे।उन्होंने कहा था कि मेरी मृत्यु के बाद ऐसे किसी भोज का आयोजन मत करना।
दिनांक 1 जुलाई 2016 को मेरी पिता की मृत्यु हुई।मेरी बात नहीं सुनी गई तो मैंने जिला कलेक्टर को शिकायत की।और पुलिस कार्रवाई हुई और नहीं हुआ मृत्युभोज। पिता की इच्छा पुरी की और इस सामाजिक कुरीति के खिलाफ पहल की ।