Read Time19 Minute, 40 Second
इसे संयोग ही कहा जाएगा कि,भारत में नवरात्रि का उत्सव और मोहर्रम इन दिनों दोनों एकसाथ आए हैं। नवरात्रि में नौ दिन-रात तक माँ शक्ति दुर्गा की आराधना की जाती है और आव्हान किया जाता है कि,जीवन में शक्तिमत्ता बनी रहे। ऐसे ही मोहर्रम में दस दिन तक मातम मनाते हुए ग़म और दु:ख का अहसास किया जाता है। दुर्गा उत्सव में माँ की आराधना में नौ रातों तक माँ के विलग विशिष्ट रूपों की निरंतर पूजा का उपक्रम बना रहता है और फिर माँ की प्रतीकात्मक पूजनीय प्रतिमा का सश्रद्धा से विसर्जन कर दिया जाता है। इन दिनों भारत में दो तरह की प्रतिमा साफ देखने को मिल रही है। पहली माँ दुर्गा की तरह-तरह की प्रतिमाएँ और दूसरी ताज़ियों की इमारतें। ये ताज़िए भी तरह-तरह के नज़र आते हैं, पूरे भारत में अलग-अलग प्रांतों में जिस तरह के ताज़ियों का निर्माण हो रहा है,उसमें कागज़,बाँस की खीपचियों के प्रयोग के साथ अभ्रक, काँच,प्लास्टिक,चाँदी और सोने का भी प्रयोग किया जाता है। कहीं तो इन ताज़ियों की इमारतों को ज़मीन में दफ्न कर दिया जाता है,कहीं नदियों में ठंडा कर दिया जाता है और कहीं केवल छींटा देकर ही ठंडा कर दिया जाता है।
भारत समरसता का पोषक प्रारम्भ से ही रहा है,यहाँ का लोक कहीं से भी रस ढूँढ निकाल लाता है, लेकिन लोक भी कभी-कभी अज्ञानतावश अपनी ही संस्कृति का परिवर्तन कर देता है और उसे गलत परम्पराओं की ओर धकेल देता है। मूल रुप से दुर्गा पूजा और मोहर्रम सत्य की रक्षा,असत्य से निरंतर संघर्ष की एक कारुणिक स्थिति है,जो सत्य के लिए युद्ध करने की प्रवृत्ति को मनुष्य के भीतर जागृत करती है। इन दोनों परम्पराओं में सत्य के पक्ष के लिए भयानक संघर्ष है, एक तरफ हज़रत इमाम हुसैन यजीद के हाथों पराजित हो जाते हैं,लेकिन सत्य और धर्म का पक्ष नहीं छोड़ते हैं। हज़रत इमाम हुसैन यजीद की निरंकुश शक्तियों और ईश्वर आज्ञा के समर्थन तथा यजीद की आज्ञा के खिलाफ़ अपना सिर बुलंद करते हैं और अपनी अंतिम सांस तक तीन दिन तक भूखे-प्यासे रहते हुए धर्म और मानवीयता के चंद रक्षकों के साथ मानव जाति के हित के लिए लड़ते हुए अंत में शहीद हो जाते हैं। हज़रत इमाम हुसैन की कर्बला मैदान की शहादत ये संदेश देती है कि,अन्यायी कितना ही ताकतवर क्यों न हो, उसके सामने झुकना नहीं चाहिए। न्याय को ज़िंदा रखने के लिए चंद साथियों के साथ उसका मुकाबला किया जा सकता है, भले ही जान क्यों न गँवाना पड़े। पहले तो हज़रत इमाम हुसैन युद्ध करना ही नहीं चाहते थे,कारण यह था कि धर्म के नियमों पर चलते हुए वे शांति की बात की पहल करके इस्लाम धर्म की मूल मान्यताओं को प्रतिपक्ष को समझाना चाहते थे,लेकिन यजीद अपनी सत्ता के मोह में अंधा हो चुका था। उसने एक न सुनी तथा हज़रत इमाम हुसैन को हज पर जाने से रोकते हुए उनके क़तल की योजना बनाई। कर्बला के शहीदों को खिराज-ए-अकीदत पेश कर ये संकल्प लिया जाना चाहिए कि,न्याय को जिंदा रखने के लिए कोई भी कुर्बानी देने से पीछे नहीं हटना चाहिए।
दूसरी तरफ प्रभु श्रीराम, दुर्गा माँ की पूजा को असफल होते देख अपना नेत्र एक सौ आठवें कमल के रूप में चढ़ाने को उद्यत हो जाते हैं। क्यों श्रीराम अपने बलिदान को उद्यत हो जाते हैं? कारण यह है कि,वे भी अन्याय को मिटाने के लिए अपने दृढ़ संकल्प में सफल हो जाना चाहते हैं। मूल रूप से हमें दो कथाएँ यहाँ दुर्गा माँ की पूजा के संबंध में मिलती हैं-सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और उसके बाद दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की। तब से असत्य, अधर्म पर सत्य, धर्म की जीत का पर्व दशहरा मनाया जाने लगा। आदिशक्ति के हर रुप की नवरात्र के नौ दिनों में क्रमशः अलग-अलग पूजा की जाती है। माँ दुर्गा की नौवीं शक्ति का नाम सिद्धिदात्री है। ये सभी प्रकार की सिद्धियाँ देने वाली हैं। इनका वाहन सिंह है और कमल पुष्प पर ही आसीन होती हैं। नवरात्रि के नौवें दिन इनकी उपासना की जाती है।
लंका-युद्ध में ब्रह्माजी ने श्रीराम से रावण वध के लिए चंडी देवी का पूजन कर देवी को प्रसन्न करने को कहा और बताए अनुसार चंडी पूजन और हवन हेतु दुर्लभ एक सौ आठ नीलकमल की व्यवस्था की गई। दूसरी ओर रावण ने भी अमरता के लोभ में विजय कामना से चंडी पाठ प्रारंभ किया। यह बात इंद्र देव ने पवन देव के माध्यम से श्रीराम जी के पास पहुँचाई और परामर्श दिया कि चंडी पाठ यथासभंव पूर्ण होने दिया जाए। इधर हवन सामग्री में पूजा स्थल से एक नीलकमल रावण की मायावी शक्ति से गायब हो गया और राम का संकल्प टूटता-सा नजर आने लगा। भय इस बात का था कि,देवी माँ रुष्ट न हो जाएँ। दुर्लभ नीलकमल की व्यवस्था तत्काल असंभव थी, तब भगवान राम को सहज ही स्मरण हुआ कि मुझे ‘कमलनयन नवकंच लोचन’ कहते हैं, तो क्यों न संकल्प पूर्ति हेतु एक नेत्र अर्पित कर दिया जाए और प्रभु राम जैसे ही तूणीर से एक बाण निकालकर अपना नेत्र निकालने के लिए तैयार हुए, तब देवी ने प्रकट हो, हाथ पकड़कर कहा-राम मैं प्रसन्न हूँ और विजयश्री का आशीर्वाद दिया।
दूसरी एक और कथा हमें मिलती है-देवी दुर्गा ने एक भैंस रूपी असुर अर्थात महिषासुर का वध किया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार महिषासुर के एकाग्र ध्यान से बाध्य होकर देवताओं ने उसे अजय होने का वरदान दे दिया। उसको वरदान देने के बाद देवताओं को चिंता हुई कि,वह अब अपनी शक्ति का गलत प्रयोग करेगा और प्रत्याशित प्रतिफल स्वरुप महिषासुर ने नरक का विस्तार स्वर्ग के द्वार तक कर दिया। उसके इस कृत्य को देख देवता विस्मय की स्थिति में आ गए। महिषासुर ने सूर्य,इन्द्र,अग्नि, वायु,चन्द्रमा,यम,वरुण और अन्य देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए हैं और स्वयं स्वर्गलोक का मालिक बन बैठा। देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से पृथ्वी पर विचरण करना पड़ रहा है। तब महिषासुर के इस दुस्साहस से क्रोधित होकर देवताओं ने देवी दुर्गा की रचना की। ऐसा माना जाता है कि,देवी दुर्गा के निर्माण में सारे देवताओं का एक समान बल लगाया गया था। महिषासुर का नाश करने के लिए सभी देवताओं ने अपने अपने अस्त्र देवी दुर्गा को दिए थे और कहा जाता है कि इन देवताओं के सम्मिलित प्रयास से देवी दुर्गा और बलवान हो गईं थी। इन नौ दिन देवी-महिषासुर संग्राम हुआ और अन्ततः महिषासुर-वध कर महिषासुर मर्दिनी कहलाई।
मूल रूप से देखा जाए तो मुहर्रम और दुर्गा पूजा दोनों में ही मानवीयता की रक्षा हेतु अन्याय के खिलाफ आवाज़ बुलंद करते हुए प्रतिरोधक शक्तियों से एक अविराम युद्ध की स्थितियाँ हैं। यह युद्ध मानवता के विकास के लिए किया जाने वाला युद्ध है, सत्य के पक्ष को बल प्रदान करने के लिए किया जाने वाला युद्ध है, धर्म और नैतिकता की हर संभव रक्षा करने के लिए संकल्पों का युद्ध है,लेकिन वर्तमान में देखने में आ रहा है कि यह एक उत्सव के रूप में लोक में विख्यात होता जा रहा है, और इसकी मूल चेतना को लोक में तिरोहित होते आसानी से देखा जा सकता है। मुहर्रम के दस दिनों को आप यदि देखेंगे,तो आश्चर्य हो जाता है कि हज़रत इमाम हुसैन की यह पीढ़ी किस हद तक गुमराइयों का शिकार हो गई है। उनके बलिदान की कथा को कोई याद नहीं करता और न ही उनके संकल्प को कोई आज दोहरा रहा है। हाँ,एक बात की अवश्य प्रशंसा की जानी चाहिए कि शर्बत की जो छबीलें लगती हैं वहाँ श्रद्धाभाव से हिन्दू भी प्रसाद रूप में शर्बत ग्रहण करते हैं। ऐसा प्रयास समाज में सराहनीय कहा जाएगा, क्योंकि इसके पीछे की मंशा आज भी इस बात को जीवित कर जाती है कि समाज में कोई प्यासा न रहे। तब हज़रत इमाम हुसैन को तीन दिन तक यजीद ने प्यासा रखा था और उनके छह माह के मासूम बेटे अली असगर तक को प्यासा रखा और एक तीर गले में मारकर शहीद कर दिया गया। फिर हज़रत इमाम हुसैन पर तो किस दर्जे के अत्याचार किए,वर्णन से बाहर है। यहाँ आज मूल रुप से यह बात हमें स्वीकारनी होगी कि,पानी की रक्षा का संकल्प उसी तरह करना होगा, जब कर्बला में हज़रत इमाम हुसैन की फ़ौज के पास थोड़ा ही पानी बचा था और अंतत: वह भी समाप्त हो गया और वे पानी के संकट से उबर न पाए। आज हमारे पास देश में सकारात्मक स्थितियाँ मौजूद हैं,प्राकृतिक स्तर पर विविधताओं के बावजूद खाद्यान्न और पानी की भरपूर सुविधा है, इसलिए उसे बर्बाद होने से बचाएं तथा मुहर्रम की समस्त अवस्थाओं को केवल दस दिन याद न करके हरेक दिन याद किया जाए, ताकि हम और उदार हो सकें और मानवता की सेवा में अग्रणी बन सकें। एक और बात मुस्लिम समुदाय के उस तबके के लिए सपष्ट करना चाहता हूँ कि,किसी भी तरह से मुहर्रम खुशियाँ मनाने वाला त्योहार नहीं बल्कि संवेदनों की परख का ऐतिहासिक दिन है। यह बलिदान की कथा और मानवता की रक्षा की याद दिलाने वाला दिन है। इस मुस्लिम नववर्ष पर हमें अपने मन को इस समय इतना संवेदनशील बनाना चाहिए कि,धर्म और मानवीयता की रक्षा के साथ विश्वमानव सेवा का भाव भीतर संजोना चाहिए। यह दु:ख के दस दिन हैं लेकिन रोना भी लाज़मी नहीं, कारण यह है कि रोना निराशा-अवसाद की ओर भी ले जाता है। यह उन कमज़ोर लोगों का रोना है, जो अपने उद्देश्य तक नहीं पहुंच सके और उनके अंदर अपने लक्ष्य हासिल करने की ताकत भी नहीं,ऐसे लोग बैठकर अपनी मजबूरी पर रोते हैं। खुद इमाम अलैहिस्सलाम ऐसे रोने से नफ़रत करते हैं,इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पर रोना है तो यह शौक़ और ख़ुशी के लिए और भावनातमक तथा मक़सद के साथ होना चाहिए।
ऐसा ही आज दुर्गा पूजा के संबंध में लोक समाज में अलग किन्तु अप्रशंसनीय माहौल बन गया है। माँ दुर्गा की शक्ति को पहचानने के बजाए केवल परम्परा का अनुमोदन शेष रह गया है। माँ दुर्गा शक्ति की प्रतिरुपिणी हैं,खासकर महिलाओं को अपने संदर्भ में वर्तमान में माँ दुर्गा को अपनी वास्तविक शक्ति से सरोकार रखते हुए संकल्पित रूप से भीतर से मज़बूत होना चाहिए। माँ दुर्गा एक साथ उन समस्त शक्तियों का प्रतीक हैं,जिनसे मानवीयता का विकास होता है और राक्षसी प्रवृत्तियों का संहार होता है। दुर्गा उत्सव वास्तव में आज नए दौर की चुनौतियों से निपटने का नवीन संकल्प देता है और जीवन में कई सकारात्मक अर्थों को भर देता है। दुर्गा उत्सव केवल गरबा,डांस,मस्तियाँ,मेला आयोजन इत्यादि का फल हमें कोई सकारात्मक दिशा की और नहीं ले जाता, बल्कि महिलाओं को अपनी शक्ति की पहचान कराने के लिए यह उत्सव आता है। आज बेहद आवश्यकता है कि,नई पीढ़ी की महिलाएं इस परम्परा का लोकानुगमन करते हुए अपनी शक्तियों का इन नौ रातों और दस दिनों में सार्थक आव्हान करें, ताकि एक ऐसे समाज का निर्माण हो सके,मानव की जन्मदात्री को कमजोर न समझा जा सके। आख़िर माँ दुर्गा शक्ति का अवतार हैं, महिषासुर यदि अन्याय, अत्याचार औऱ पापाचार का प्रतीक है, तो दुर्गा शक्ति,न्याय और हर अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार की प्रतीक है। उसकी आँखों में सिर्फ़ करुणा और दया के आँसू ही नहीं बहते, बल्कि क्रोध के स्फुलिंग भी छिटकते हैं। ऐसे ही आज महिलाओं को अपने को सशक्त करने का यह नौ रातों का सराहनीय और सुनहरा अवसर होता है। यह उत्सव बराबर याद दिलाता है कि, महिला अपने में सक्षम और शक्ति सम्पन्न है। उसे कोई भी असद्प्रवृत्तियाँ परास्त नहीं कर सकती हैं और संघर्ष में वह कभी पराजित नहीं की जा सकती है। मुहर्रम और दुर्गा उत्सव के प्रति केवल रस्म अदायगी न समझी जाए,बल्कि उसके पीछे के मूलभाव, उद्देश्य और नैतिक संकल्पों को आज के दौर के अनुसार समझने की बहुत गहन आवश्यकता है,ताकि समाज को इस दिशा और माध्यम से बेहतर बनाते हुए उन्नति की ओर ले जाया जा सके।
#डॉ. मोहसिन ख़ान
परिचय : डॉ. मोहसिन ख़ान (लेफ़्टिनेंट) नवाब भरुच(गुजरात)के निवासी हैं। आप १९७५ में जन्मे और मध्यप्रदेश(वर्तमान में महाराष्ट्र)के रतलाम से हैं। आपकी शैक्षणिक योग्यता शोधोपाधि(प्रगतिवादी समीक्षक और डॉ. रामविलास शर्मा) सहित एमफिल(दिनकर का कुरुक्षेत्र और मानवतावाद),एमए(हिन्दी)और बीए है। ‘नेट’ और ‘स्लेट’ जैसी प्रतियोगी परीक्षाएँ उत्तीर्ण करने के साथ ही अध्यापन(अलीबाग,जिला-रायगढ़ में हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निदेशक और अन्य महाविद्यालयों में भी)का भी अनुभव है। 50 से अधिक शोध-पत्र व आलेख राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर के पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं। साथ ही ‘देवनागरी विमर्श (उज्जैन),
उपन्यास-‘त्रितय’,ग़ज़ल संग्रह- ‘सैलाब’और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ और गज़लें भी प्रकाशित हैं। बतौर रचनाकार आप हिन्दी साहित्य सम्मेलन(इलाहाबाद), राजभाषा संघर्ष समिति(नई दिल्ली), भारतीय हिन्दी परिषद(इलाहाबाद) एवं (उ.प्र. मालव नागरी लिपि अनुसंधान केन्द्र(उज्जैन,म.प्र.)आदि से भी जुड़े हुए हैं। कई साहित्यिक कार्यक्रम सफलता से सम्पन्न करा चुके हैं,जिसमें नाट्य रूपान्तरण एवं मंचन के रुप में प्रेमचंद की तीन कहानियों का निर्देशन विशेष है। अन्य गतिविधियों में एनसीसी अधिकारी-पद लेफ्टिनेंट,आल इंडिया परेड कमांड में सम्मानित होना है। इसी सक्रियता के चलते सेना द्वारा प्रशस्तियाँ एवं सम्मान के अलावा कुलाबा गौरव सम्मान,बाबा साहेब आम्बेडकर फैलोशिप दलित साहित्य अकादमी (दिल्ली)से भी सम्मान पाया है। समाजसेवा में अग्रणी डॉ.खान की संप्रति फिलहाल हिन्दी विभागाध्यक्ष एवं शोध निदेशक तथा एनसीसी अधिकारी (अलीबाग)की है।
Post Views:
524