ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
आज कल एक अजीब चलन चल गया है। शिष्टता की सीमा लांघना, बेवाकीपन और बोल्ड कहा जाने लगा है। अगर उसे कोई स्त्री , स्त्री विमर्श से जोड़कर उसे महिमामंडित करे तो वह बड़ी खबर बन जाती है। उसे वैश्विक स्तर पर भी स्वागत किया जाने लगा है।
आप जन लेखक या जनसंवाद स्थापित करने वाले रचनाकार कहलाने लगते हैं, अगर आप ब्यवस्था को इतनी गालियां देते है कि पिछले कई दशकों तक नहीं दी गई होगी। आप लानत मलामत भेजने की होड़ में काफी आगे निकल पाते हैं।
रातों रात मशहूर होने के बड़े आसान समीकरण का प्रचलन चल पड़ा है। चली आ रही दस्तूरें, दकियानूसियों से नवाज़ी जाने लगी हैं। मातृभूमि को गाली देना समाचार बन जाता है। मातृभूमि के लिए गोली खाना कोई समाचार नहीं बन पाता।
हमें पोर्न अच्छा लगता है, क्योंकि इंटरनेट पर पोर्न 70 प्रतिशत से अधिक छाया हुआ है। अब साहित्य में अश्लीलता की चर्चा ही बेकार है। अब कामायनी, उर्वशी या शाकुन्तलम् में हम श्रृंगार नहीं ढूढते। हम पेटीकोट और dopadi में श्रृंगार ढूढते है। अफ़सोस तब होता है जब समाज को दिशा देने वाले साहित्यकार या प्रबुद्ध वर्ग भी सस्ती लोकप्रियता की चाह में हवा के उसी रुख में उड़ते हुए दीखते हैं।
समाज की विद्रूपताओं को स्त्री के अंतरवस्त्रों(मैं यहाँ उनके नाम गिनाने से परहेज़ कर रहा हूँ) से जोड़कर स्त्री रचनाकारों के द्वारा प्रस्तुत किया जाना उन कतिपय तथाकथित लोगों को भले ही चटपटा, तीखा और स्वादिष्ट लगता हो, लेकिन स्त्री विमर्श की वकालत करने वालों को भी शिष्ट तो नहीँ ही लगता होगा। हाल में एक कविता चर्चित हो गई।
उसके भाव कुछ इसतरह थे-
उसने दरोगा के कहने पर पेटीकोट नहीं उतारा,
उसकी दुधमुंही बच्ची अपनी बूढ़ी दादी के सूखे स्तनों को चूसती रही…वगैरह, वगैरह…
यहां साहित्य बेवाकीपन का आवरण लिए जनसंवाद स्थापित करने को बेचैन दीखता है, ऐसा ही सन्देश देने का प्रयास किया जा रहा है। इसमें इसतरह का तथाकथित बेवाकीपन किस हदतक बेहयापन के करीब पहुँच गया लगता है, इसका आभास बहुतों को होते हुए भी वे सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के प्रयास में उस हद तक अपने को गिरने – गिराने में कोई भी संकोच करना नहीं चाहते। इसमें वे बोल्ड, बेवाक का ख़िताब भी हासिल करने में सफल हो ही जाते हैं।
साहित्य अगर न भी कहें तो आजकल का लेखन इस बात में होड़ करने में लगा है कि किसने सेक्स की रोशनाई में अपनी कलम कितनी डुबाई है और उसके बाद उसे कितने बोल्ड ढंग से कागजों पर उतारा है। आज का श्रृंगार रस, श्रृंगार से उतना अलंकृत नहीं होता जितना इरोटिका के रस से ओतप्रोत होता है।
मैंने हाल में लिखी अपनी एक श्रृंगार रस की कविता की कुछ पंक्तियों को सोशल साइट FB पर डाली, यह देखने के लिए कि कैसी प्रतिक्रिया मिलती है । पक्तियां थी..
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।
उत्कंठित मनसे, उद्वेलित तन से,
उर्जा के प्रबलतम आवेग के क्षण से,
यौवन से जीवन का अविचारित यात्री बन,
अंतर में टूटते तटबंध को टटोंलें।
अभिसार के क्षणों को यादों में पिरो लें।
इसपर बहुत कम लोगों की प्रतिक्रिया आई। शायद मैंने भारी भरकम शब्दों में कसकर श्रृंगार को ब्यक्त करने की कोशिश की थी जो इस समय की ग्रहणशीलता के अनुरूप नहीं है। अगर मैं उसे ब्यक्त करने के स्तर को थोडा नीचे ले आकर सॉफ़्ट पोर्न के आसपास रखता, तो शायद ज्यादा स्वीकार किया जा सकता था। बड़ी अजीब बात है जहां अभिज्ञान शाकुन्तलम्, कामायनी, उर्वशी जैसे श्रृंगार रस से सराबोर उत्तम रचनाएँ रची गई हों वहां आज का पाठक वर्ग श्रृंगार रस की कतिपय पंकियों के प्रति भी ग्रहणशील नहीं है।
इस समय अगर आदरणीय जयशंकर प्रसाद भी अपनी कामायनी को पुनर्मुद्रित करवाने को आएं तो प्रकाशक उन्हें अपने काम सर्ग और वासना सर्ग का नाम बदलकर पोर्न सर्ग और एरोटिक सर्ग करने कहेंगें, तभी उनका काब्य छापने लायक समझा जायेगा। जयशंकर प्रसाद उतने बोल्ड नहीं हो सके न। उर्वशी से राजा पुरुरवा के प्रणय दृश्यों को दिनकर जी खुलकर नहीं लिख सके न। मैंने हाल ही में एक कहानी में BHMB शब्द लिखा देखा जो किसी लड़की पर कसी गई फब्तियों का एक हिस्सा था। बाद में जब लड़की ने अपने सूत्रों से इसका मतलब जानना चाहा तो पता लगा कि इसका मतलब होता है, ” बड़ा होकर मॉल बनेगी”, और यह मतलब जानने के बाद लड़की शर्मिंदा नहीं महसूस कर , खुश होती है। …और ऐसी कहानियाँ और किस्से खूब पढी जाती हैं।
यह वैसे ही होता है जैसे अगर कहा जाय कि इसे मत देखो, या इसे मत पढ़ो, तो उसे लोग जरूर देखते या पढ़ते हैं। उसी तरह का है बोल्ड लेखन।
बेवाकीपन अब बेहयापन की हद पार करने लग गया है। रचनाकर्मियों का भी कोई दायित्व होता है, उसे समझने की जरूरत है।
तो इसे आप क्या कहेंगें, ” बेवाकीपन या बेहयापन”।
बोल्डनेस, फूहड़पन और बेहयापन की सीमा न लाँघ दे इसका खयाल रखा जाय, तो रचनाकार अपने सामाजिक दायित्व के निर्वहन में भी समुचित योगदान दे सकेंगे।
–ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
जमशेदपुर
संक्षिप्त परिचय:
टाटा स्टील में ३९ साल इस्पात के उत्पादन विभाग में काम करते हुए पिघलते पसीने के बीच भी अगर साहित्य – सृजन की अकुलाहट को जिन्दा रखने में सफल हो पाया हूँ तो यह सरस्वती माँ की कृपा और आप सबों के स्नेह के कारण ही हो सका है। यही मेरा परिचय भी है और उपलब्धि भी। स्कूली शिक्षा गांव के विद्यालय में, बीएससी आनर्स (भौतिकी) – एच डी जैन कॉलेज, आरा और एम एस सी भौतिकी – मगध विश्वविद्यालय, बोधगया । वर्ष 1973 – 74 में जेपी आंदोलन में अगुआई, जेपी के तरुण शांति सेना के सिपाही बने । आपातकाल के दौरान वारंट जारी होने के कारण भूमिगत होना पड़ा । उसी समय 1975 जनवरी से टाटा स्टील में साक्षात्कार में चयनित होकर नौकरी शुरू की। 16 साल उत्पादन विभागों में तथा 19 साल तक योजना विभाग में कार्यरत । नौकरी के दरम्यान ही इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़मेटल्स, कोलकता से मेतल्लुर्गी*(धातुकी) में इंजीनियरिंग , इंदिरा गांधी नेशनल ओपन यूनिवर्सिटी (IGNOU) से पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन मार्केटिंग मैनेजमेंट। टाटा स्टील के इन हाउस मैगजीन में कई टेक्निकल पेपर प्रकाशित। अपने योजना विभाग में इन हाउस ट्रेनिंग कार्यक्रम के तहत ‘ज्ञानअर्जन’ सेशन का आयोजन, योजना विभाग के ट्रेनिंग गाइड का प्रकाशन। जनवरी 2014 से सेवानिवृति के बाद हिन्दी साहित्य की सेवा का संकल्प । विद्यार्थी जीवन में कॉलेज की मैगजीन में हिन्दी कविताओं का प्रकाशन । उससमय पटना से प्रकाशित अख़बार आर्यावर्त, इंडियन नेशन, प्रदीप तथा सर्चलाईट में कविता तथा लेखों का प्रकाशन । जेपी आंदोलन के समय जेपी के विद्यार्थी एवं युवाशाखा के वाराणसी से प्रकाशित मुख्यपत्र ‘ तरुणमन ‘ में लेखों का लगातार प्रकाशन । वर्ष 2005 से 2007 के बीच गया में मानस चेतना समिति के मुख्यपत्र ‘ चेतना ‘ में कविता एवं लेखों का प्रकाशन।
माननीय मिश्रा जी लेख पढ़कर वर्तमान समय के फूहड़पन को लेकर जो एक आक्रोश मन मे है, वह कहीं न कहीं अपनी कुंठा की अभिव्यक्ति पाकर एक राहत महसूस कर रहा है। अर्थपूर्ण लेखन के लिए आपको बधाई।