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गहरी पीर भरी हो मन में,
अधरों पर फिर भी मुस्कान।
भाव-कर्मपथ को सम्यक कर,
छेड़ो सस्वर तुम मधु गान॥
श्वेत-श्याम रंग जीवन के,
कभी कुलिश कभी लिए सुगन्ध।
सुख-दुख गति-ठहराव मध्य है,
जीवन का स्वर्णिम अनुबन्ध ॥
जब तक साँस,आस है तब तक,
चले कर्मपथ को पहचान।
सब कुछ हजम यहाँ करें न,
कुछ पाथेय रखें सरजाम ॥
विपुल बार उपवन में जग के,
खिलते मधुर मनोहर फूल।
मगन आप में रहते हरदम,
शीत ऊष्ण आपद को भूल॥
‘बाधा’ की ‘व्याधि’ है पकड़ती,
हारते जो नहीं एक तिल।
पुरूषार्थ से राह चलें जो,
मिल जाती उनको मंजिल॥
गहन कर्म रुचि दृढ़ शुचि मति,
स्वप्न निरंतर नयनों में।
रहबर जग में वे बन जाते,
हो अन्तर न कर्म मन बैनो में॥
सिन्धु दिया तब राह राम को,
जब निज पौरूष दिखलाए थे।
बन्दर भालू गिरि शिला खण्ड,
ले सागर में सेतु बनाए थे॥
#विजयकान्त द्विवेदी
परिचय : विजयकान्त द्विवेदी की जन्मतिथि ३१ मई १९५५ और जन्मस्थली बापू की कर्मभूमि चम्पारण (बिहार) है। मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार के विजयकान्त जी की प्रारंभिक शिक्षा रामनगर(पश्चिम चम्पारण) में हुई है। तत्पश्चात स्नातक (बीए)बिहार विश्वविद्यालय से और हिन्दी साहित्य में एमए राजस्थान विवि से सेवा के दौरान ही किया। भारतीय वायुसेना से (एसएनसीओ) सेवानिवृत्ति के बाद नई मुम्बई में आपका स्थाई निवास है। किशोरावस्था से ही कविता रचना में अभिरुचि रही है। चम्पारण में तथा महाविद्यालयीन पत्रिका सहित अन्य पत्रिका में तब से ही रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। काव्य संग्रह ‘नए-पुराने राग’ दिल्ली से १९८४ में प्रकाशित हुआ है। राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति विशेष लगाव और संप्रति से स्वतंत्र लेखन है।
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