पूछिए मत क्यों हमारी शोखियाँ कम पड़ गईं।
जिंदगी गुजरी है ऐसे आंधियाँ कम पड़ गईंll
भूख के मंजर से लाशों ने किया है यह सवाल।
क्या ख़ता हमसे हुई थी,रोटियां कम पड़ गईंll
जुर्म की हर इंतिहा ने कर दिया इतना असर।
अब हमारे मुल्क में भी बेटियां कम पड़ गईंll
मान लें कैसे,उन्हें है फिक्र जनता की बहुत।
कुर्सियां जब से मिली हैं,झुर्रियां कम पड़ गईंll
इस तरह बिकने लगी है मीडिया की साख भी।
जब लुटी बेटी की इज्जत,सुर्खियां कम पड़ गईंll
मैच फिर खेला गया कुर्बानियों को भूलकरl
चन्द पैसों के लिए रुसवाइयाँ कम पड़ गईंll
मत कहो `हीरो` उन्हें तुम,वे खिलाड़ी मर चुके।
दुश्मनों के बीच जिनकी खाइयां कम पड़ गईंll
हो गया नीलाम बच्चों की पढ़ाई के लिए।
जातियों के फ़लसफे में रोजियाँ कम पड़ गईंll
क्यों शहर जाने लगा है गांव का वह आदमी।
नीतियों के फेर में आबादियां कम पड़ गईंll
देखते-ही-देखते क्यों लुट गया सारा अमन।
कुछ लुटेरों के लिए तो बस्तियां कम पड़ गईंll
सिर्फ अपने ही लिए जीने लगा है आदमी।
देखिए अहले चमन में नेकियाँ कम पड़ गईंll
यह सही है बेचने वह भी गया ईमान को।
गिर गया बाज़ार,सारी बोलियाँ कम पड़ गईंll
#नवीन मणि त्रिपाठी
परिचय : नवीन मणि त्रिपाठी कानपुर(उत्तरप्रदेश)के
अर्मापुर रियासत में रहते हैंl आपका जन्म १९७५ का हैl