
आज ऊपरी मंज़िल
से गिरने वाली,
मृत्यु के आगोश में
समाने वाली,
उस दुर्भाग्या का
पोस्टमार्टम है।
कोई कह रहा है हत्या है, कोई आत्महत्या?
उस दुर्भाग्या की रूह
शरीर के आसपास
ही घूम रही थी।
ख़ामोशी से सोच
रही थी,
काश! कोई ऐसा
कानून होता
जो मेरे मन का
भी पोस्टमार्टम
करने का
आदेश देता और
वह देखता मेरी
अधूरी-सी
ज़िंदगी को,
मेरे दफ़न हुए
ख़्वाबों को और इसके ज़िम्मेदारों को
परत-दर-परत
जब उघड़ती मेरी
ज़िंदगी
तब सबसे पहला-पहला गुनहगार होता
मेरा पिता।
उसके लिए मैं
सिर्फ़ एक बोझ-सी
गठरी थी।
जिसे माथे से उतारना था।
बस उसने मुझे एक
बेदर्द को ब्याह दिया।
उस दानव ने हर रात
मेरे शरीर को
चोटिल किया।
वहीं मेरी आत्मा को
जार-जार रोने पर
विवश किया।
मेरी ममता
बिलखती थी।
वह गर्भपात
कराता था,
क्योंकि गर्भ में
बिटिया होती थी।
मैं जितना रोती
वह उतना ही हँसता।
मेरी छोटी-सी
चाहत थी।
कभी वह मुझे
प्यार से मेरा
नाम तो ले,
पर वह हर बार मुझे
ठोकरों से ही जगाता,
मैं हड़बड़ाई-सी
खड़ी रहती गुलामों
की तरह,
वह मेरी भावनाओं
को रौंदता रहा
हुक्मरानों की तरह।
मैं प्यासी थी
पर पानी की नहीं।
मैं भूखी थी,
पर रोटी की नहीं।
भले ही न बोले
पर एक बार मुझे
प्यार से देख तो ले!
अपने आप को
दिलासा देती,
शायद इन्हें प्यार का
इज़हार नहीं आता है।
पर मैं हतप्रभ तो तब
हुई जब मैंने सुना
वह किसी और से
प्यार करता है।
मैं डूब-डूब कर
निकालती रही,
स्वयं की कमियाँ।
मंथन में यही
निकला
मैं ख़ामोश थी,
मुखर नहीं।
मैं सहनशील थी,
उतावली नहीं।
मेरा समर्पण
मुखौटा नहीं था।
मेरा त्याग कुछ
माँगता नहीं था।
मेरे संस्कारों की
लक्ष्मण रेखा थी।
मैं देखती हूँ
मेरे साथ कई
अतृप्त रूह खड़ी हैं।
आंसू का सैलाब-सा
आया हुआ है।
सब भोग्या हैं।
दारुण दुख में
आकंठ डूबी हुई।
आज एक औरत फिर
सिर्फ़ रूह
रह गई है ।
धैर्य की पराकाष्ठा को
पार करके।
कल चाहे कुछ भी
सिद्ध हो
आत्महत्या या हत्या!
वह भी मेरे जीवन की
तरह एक गुत्थी
बनकर रह जाएगी।
सिर्फ़ गुत्थी बनकर रह जाएगी।
विनीता तिवारी
इंदौर, मध्यप्रदेश

