डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
एक हज़ार वर्ष से अधिक की यात्रा में हिन्दी भाषा ने कई पड़ाव और प्रवाह देखे हैं। उस भाषा का सौन्दर्य इस बात का साक्षी है कि आज भारत के जनमानस के भीतर उस भाषा के प्रति अनुराग जागृत है और उसी भाषा से विश्व में भी एक अलग पहचान है। हिन्दी का साहित्य जितना समृद्ध है, उतना ही समृद्ध हिन्दी कविता का पक्ष भी है। कवि सम्मेलनों और हिन्दी फ़िल्मों के कारण भारत ही नहीं अपितु विश्व में हिन्दी का प्रसार और विस्तार होता है। जनता भी हिन्दी भाषा समझती और आत्मसात करती है। वर्ष 2023 हिन्दी कवि सम्मेलन का शताब्दी वर्ष है, इस निमित्त हिन्दी के कुछ कवियों के शब्द प्रवाह यानी मुक्तक, कविता, छन्द, गीत इत्यादि के माध्यम से, जो हिन्दी भाषा के प्रति राग को दर्शाते हैं, उनका संकलन कर प्रस्तुत है-
जन-जन की भाषा है हिन्दी
भारत की आशा है हिन्दी,
जिसने पूरे देश को जोड़े रखा
वो मज़बूत धागा है हिन्दी,
हिन्दुस्तान की गौरव गाथा है हिन्दी
एकता की अनुपम परम्परा है हिन्दी,
जिसके बिना हिन्द थम जाए
ऐसी जीवन रेखा है हिन्दी।
जिसने काल को जीत लिया
ऐसी कालजयी भाषा है हिन्दी,
सरल शब्दों में कहा जाए तो
जीवन की परिभाषा है हिन्दी।
-सत्यनारायण सत्तन ‘गुरुजी’
करते हैं तन-मन से वंदन, जन-गण-मन की अभिलाषा का,
अभिनंदन अपनी संस्कृति का, आराधन अपनी भाषा का।
यह अपनी शक्ति सर्जना के माथे की है चंदन रोली,
माँ के आँचल की छाया में हमने जो सीखी है बोली,
यह अपनी बँधी हुई अंजुरी, ये अपने गंधित शब्द सुमन,
यह पूजन अपनी संस्कृति का, यह अर्चन अपनी भाषा का।
– डॉ. सोम ठाकुर, आगरा
हिन्दी हमारी आन है, हिन्दी हमारी शान है,
हिन्दी हमारी चेतना, वाणी का शुभ वरदान है।
हिन्दी हमारी वर्तनी, हिन्दी हमारा व्याकरण,
हिन्दी हमारी संस्कृति, हिन्दी हमारा आचरण।
हिन्दी हमारी वेदना, हिन्दी हमारा गान है,
हिन्दी हमारी चेतना, वाणी का शुभ वरदान है।
हिन्दी हमारी आत्मा है, भावना का साज़ है,
हिन्दी हमारे देश की हर तोतली आवाज़ है।
हिन्दी हमारी अस्मिता, हिन्दी हमारा मान है,
हिन्दी हमारी चेतना, वाणी का शुभ वरदान है।
हिन्दी निराला, प्रेमचंद की लेखनी का गान है,
हिन्दी में बच्चन, पंत, दिनकर का मधुर संगीत है।
हिन्दी में तुलसी, सूर, मीर, जायसी की तान है,
हिन्दी हमारी चेतना, वाणी का शुभ वरदान है।
जब तक गगन में चांद, सूरज की लगी बिंदी रहे,
तब तक वतन की राष्ट्रभाषा, ये अमर हिन्दी रहे।
हिन्दी हमारा शब्द, स्वर, व्यंजन अमिट पहचान है,
हिन्दी हमारी चेतना, वाणी का शुभ वरदान है।
-पद्मश्री सुनील जोगी
बदले परिवेश में,
कबीरा के देश में,
स्वर्णिम प्रभात करो रे,
कोई तो हिन्दी की बात करो रे।
हिन्दी की बिन्दी को मस्तक लगाओ,
हिन्दी की वीणा को खुलकर बजाओ,
बहुगुण विचारों की,
सुगठित संस्कारों की,
अच्छी शुरुआत करो रे,
कोई तो हिन्दी की बात करो रे।
-डॉ. विष्णु सक्सेना, अलीगढ़
हृदय का गान है हिन्दी, सुरों की तान है हिन्दी।
है हिन्दी हिंद की भाषा, हमारा मान है हिन्दी।।
बसी है “माँ” की “ममता” औ पिता का “नेह” हिन्दी में।
सुखद लगता है कहना प्रीतमय मन गेह हिन्दी में।
ये है गंगा-सी निर्मल और अविरल नर्मदा जैसी।
ये उन्नत है हिमालय-सी, न है भाषा कोई ऐसी।।
चिरन्तन ध्यान है हिन्दी, सतत् नवज्ञान है हिन्दी।
है हिन्दी हिंद ।
छुए अम्बर-सी ऊँचाई महासागर-सी गहराई।
इसी में श्याम की वंशी सुनाये छन्द-चौपाई।
सुनाये सूर के पद भाव में उत्फुल्ल तरुणाई।।
इसी में काल गाये क्षण, सुनाये चंद-वरदायी।।
क़लम की शान है हिन्दी, सतत् गतिमान है हिन्दी।
है हिन्दी हिंद ।
-डॉ. रुचि चतुर्वेदी, आगरा
जिन ध्वनियों में सबसे पहले मैंने अपनों को पहचाना,
गड्ड-मड्ड होकर जो सबसे पहले कानों से टकराई।
जिनमें लाड़ लड़ाकर माँ ने मुझे कलेजे से चिपकाया,
जिनमें बुआ बलैया लेकर अस्पताल में भी इतराई।
जिन ध्वनियों की हर स्वर-लहरी में अवलम्बन आशा का है,
उन ध्वनियों का इक-इक अक्षर केवल हिन्दी भाषा का है।
जिस भाषा के स्वर, बचपन में मेरे बहुत घनिष्ठ हो गए,
जिस भाषा के व्यंजन, तुतली बोली में स्वादिष्ट हो गए।
जब उसको लिखना सीखा तो अ अनार की पूँछ बना दी,
ढ का पेट बड़ा कर डाला, क और ल की मूँछ बना दी।
इतने पर भी कभी न जिसमें बादल घिरा निराशा का है,
इतना बड़ा कलेजा शायद केवल हिन्दी भाषा का है।
जब भावों में प्रीत सजी थी, अलकों में इक आस भरी थी,
तब धड़कन ने काग़ज़ पर आ देवनागरी देह धरी थी।
पीर, हर्ष, उल्लास, हताशा, भय, संदेह, समर्पण, आशा,
हर उलझन के लिए शब्द हैं, कितनी धनी हमारी भाषा।
जैसा रिश्ता दीपक-बाती, बादल और पिपासा का है,
वैसा रिश्ता अभिव्यक्ति से मेरी हिन्दी भाषा का है।
-चिराग़ जैन, दिल्ली
विरागी दग्ध अंतस हित शुचित अनुराग है हिन्दी,
अहो! मेरे लिए भावों का अनुपम फाग है हिन्दी,
बरसते हैं क़लम से राग बनकर शब्द कंचन-से
मेरी काली सियाही पर चमकती आग है हिन्दी।
– अंकिता सिंह, नोएडा
देश की है शान हिन्दी, है हमारी आन हिन्दी,
पर्व है, त्योहार है, धड़कनों का गान हिन्दी।
माँ का दर्जा है मिला और है हमारी आत्मा,
लहराई जग में पताका हो रही विश्वात्मा।
मन की है मुस्कान हिन्दी, है हमारा मान हिन्दी,
विश्व के भाषा पटल पर, एक अलग पहचान हिन्दी।
माँ यदि संस्कृत रही तो और भाषा बेटियाँ,
ये हमारी भूख है तो ये हमारी रोटियाँ।
एक संविधान हिन्दी, एक है परिधान हिन्दी,
मन से मन की बात कह दे, एक है वरदान हिन्दी।
मंदिरों की घण्टियाँ तो शंख का भी नाद है,
भेद-जाति के बिना सब में ही वह प्रतिपाद है।
वाणी का रसपान हिन्दी, देश का गुणगान हिन्दी,
संस्कृति के बीज वाले, खेत का है धान हिन्दी।
हिन्दी भारत की शुभंकर, इससे पहली प्रीत है,
भावों का स्वर्णिम कलश है, आरती है गीत है।
राग, लय और तान हिन्दी, राष्ट्र का उत्थान हिन्दी,
आने वाला कल है इसका, आज का आह्वान हिन्दी।
-नरेंद्रपाल जैन, ऋषभदेव, राजस्थान
भोर प्रभाती से लोरी तक, जिसके मधुरिम गान है,
यदि भावों को तन समझो तो, हिन्दी मन है प्राण है,
भोजपुरी, मैथिली, बुंदेली, अवधी, मगही-सी बहनें
संस्कृत की परछाई हिन्दी, भारत की पहचान है।
– पल्लवी त्रिपाठी, नोएडा
समुन्नत संस्कृति की हमको चिर आशा बचानी है,
करेंगे विश्व का नेतृत्व अभिलाषा बचानी है,
बचाने को खड़े हैं देश अपना वीर सीमा पर
हम हिंदुस्तानियों को हिन्द की भाषा बचानी है।
– अमित जैन मौलिक, जबलपुर
चुनर धानी, अनेकों सभ्यता, गंगा-कालिंदी से,
हमारी माँ के चेहरे की चमक, मुस्कान बिंदी से,
पढ़ो इंग्लिश, लिखो चाइनीज़, बोलो फ़ारसी लेकिन
हमारे देश “हिन्दुतान” की पहचान ‘हिन्दी’ से।
-संजीव मुकेश, दिल्ली
भाषा के माथे पर भावों की चंदना,
नित्य शब्द सुमन से करते हैं शुभ अर्चना।
अपनी वाणी कल्याणी की अभिनंदना ,
आओ गाएँ सब मिलकर हिन्दी वंदना ।
-गौरी मिश्रा नैनीताल
कविता का कलश धरो सिर पर, भर दो काग़ज़ में काव्य प्राण,
यह क़लम चले तो गढ़ आए, साहित्य सिंधु पर संविधान।
इसके पहले हिन्दी अपने माथे की बिंदी त्याग करे,
इसके पहले रस नीरस हो, अनुप्रास फिरें बिखरे-बिखरे।
इसके पहले भाषा अपने मौलिक स्वरूप को खो जाये,
इसके पहले व्याकरण दोष की चिंगारी लौ हो जाये।
रे धरती के साहित्यकार! भावों को गीतों में ढालो,
अपने अंतस की पीड़ा को सारे स्वर-व्यंजन दे डालो।
तेरह-ग्यारह में “दोहा” हो, सोलह में महके “चौपाई”,
“रोला चौबीसी में गाओ, ग्यारह-तेरह में “सुरठाई”।
ग्यारह “अहीर” बारह “तोमर” चौदह मे “मानव छंद” लिखो,
उन्नीस “सुमेरू” रूप धरो, बाईस “रधिका” आनंद लिखो।
रोला समान “दिक्पाल” छंद में, चौबीस मात्रा की गणना,
छब्बीस “गीतिका” का स्वरूप, “सरसी” सत्ताईस में पढ़ना।
सोलह-बारह की यति रखकर “हरिगीत” छंद निर्मित करना,
“तांटक” में तीस और “आल्हा” में इकत्तीस का क्रम धरना।
यह सभी मात्रिक छंद की जिनकी मात्रायों से गणना है,
पर जहाँ घनाक्षर आ जाये, वर्णों की गणना करना है।
संसार नियम पर चलता है, बेनियम चलाना ठीक नहीं,
यदि ज्ञान नहीं कविताओं का तो कवि कहलाना
ठीक नहीं।
ले चले क़लम को थाम अगर, अपनी भावुकता के स्वर में,
तो याद रहे, ख़ुद सरस्वती दर्शन दे अक्षर-अक्षर में।
रे क़लम धारियों! लिखो वही, जिसका हो सदियों तक बखान,
यह क़लम चले तो गढ़ आए, साहित्य सिंधु पर संविधान।
-डॉ. अंशुल आराध्यम, भोपाल
नवरस कला प्रेम काव्य की, मनहर-सी आसक्ति हिन्दी।
मन से मन तक सहज जो पहुंचे, है ऐसी अभिव्यक्ति हिन्दी।
शब्द शब्द हैं पुनीत सरोवर, कानों में मधुरस जो घोले,
भाषा मात्र न समझो इसको, है वाणी की भक्ति हिन्दी।
-कुमार नितेश नैश, भोपाल
हिन्द की पुण्य धरा का मान है हिन्दी,
शब्द-शब्द प्रेम और सम्मान है हिन्दी,
किन उपमाओं से अलंकृत करूँ तुझे
है सच ये समूचा हिंदुस्तान है हिन्दी।
– आयुषी भण्डारी, इन्दौर
इस संकलन का उद्देश्य हिन्दी के कवियों के शब्द समर्पण को पाठकों तक पहुंचाना है। आप भी रसास्वादन कीजिए।
सम्पादन एवं संकलन
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
सम्पादक, मातृभाषा डॉट कॉम
इन्दौर, मध्यप्रदेश
(लेखक मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व हिन्दी योद्धा हैं, हाल ही में साहित्य अकादमी, मध्यप्रदेश शासन द्वारा वर्ष 2020 के लिए ‘अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार’ के लिए चयनित है।)