परिचर्चा संयोजक-
डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’
यूएनएफ़पीए की रिपोर्ट के अनुसार अब भारत विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश तो बन गया किन्तु इस जनसंख्या में युवाओं की संख्या अधिक है।
अब इन युवाओं के बौद्धिक उत्थान के लिए उन्हें साहित्य से जोड़ना भी बहुत आवश्यक है।
इसी दिशा में युवाओं को साहित्य से जोड़ने में ’लघुकथा की भूमिका’ निर्धारण के लिए मातृभाषा डॉट कॉम द्वारा आयोजित डिजिटल परिचर्चा में विद्वतजनों ने अपने विचार रखे।
जबलपुर निवासी वरिष्ठ लघुकथाकार पवन जैन जी के अनुसार ‘वर्तमान में पाठक साहित्य तो पढ़ना चाहता है, परंतु उसके पास समय का अभाव है। आकार में छोटी होने के कारण लघुकथा पाठकों की प्रथम पसंद है, ख़ासकर युवाओं में।
लघुकथा हिन्दी गद्य साहित्य की स्वतंत्र, प्रतिष्ठित एवं लोकप्रिय विधा है। आज समाचार पत्र, पत्रिकाओं में लघुकथा को प्रमुखता से प्रकाशित किया जा रहा है। लघुकथा अपने आकर्षक शीर्षक के कारण पाठकों का ध्यान आकर्षित करती है।
लघुकथा सामाजिक कुरूपताओं, विद्रूपताओं को असरकारी तरीके से उजागर करती है तथा पाठक को सोचने पर मजबूर करती है।
लघुकथा अपनी सांकेतिकता, प्रतीकात्मकता, सूक्ष्मता, एवं तीक्ष्णता के कारण लोकप्रिय विधा है। यह पाठकों के सामने ज्वलंत सवाल खड़े करती है एवं मानसिक खुराक प्रदान करती है।
आज युवा वर्ग के हाथों में मोबाइल सदैव रहता है तथा लघुकथा भी सोशल मीडिया के सभी प्लेटफ़ार्म पर उपस्थित है।अतः युवा वर्ग थोड़ा–सा भी समय मिलता है तो इससे जुड़ जाता है।
आज लघुकथा लेखन में भी युवाओं की सक्रिय भागीदारी है। वह चाहे नौकरी पेशा हो, व्यापारी हो या प्रोफ़ेशनल इस विधा से सहज ही जुड़ जाता है। लघुकथा की सरल एवं सहज भाषा शैली के कारण युवा इसके पाठन एवं लेखन की ओर प्रेरित होता है।’
उज्जैन की रहने वाली वरिष्ठ लघुकथाकार मीरा जैन जी का कहना है कि ‘साहित्य को समाज के दर्पण के साथ युवाओं का मार्गदर्शक भी कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी किंतु वर्तमान की तेज़ रफ़्तार से दौड़ती ज़िंदगी में साहित्य समागम का विचार भी मस्तिष्क में उत्पन्न होना दुर्लभ होता जा रहा है, ऐसे में युवाओं को साहित्य से जोड़ने की प्रक्रिया भी निश्चित ही जटिल हो गई है। साहित्य श्रेष्ठ जीवन की संजीवनी होने के कारण इससे किनारा परोक्ष रूप से समाज को अंधकार व अराजकता के गर्त में पहुंचाने का एक प्रमुख कारण बन सकता है।’
उन्होंने यह भी कहा कि ‘आज का प्रत्येक युवा व्यस्तता की परिधि से इतना अधिक घिरा हुआ है, उसे अपने लिए ही वक्त नहीं है, ऐसे में पठन-पाठन के लिए वक्त निकालना वास्तव में दुरुह होता जा रहा है। इन परिस्थितियों में लघुकथा साहित्य की एक ऐसी सशक्त विधा बनकर उभर आई है, जो अन्य वय के पाठकों के अतिरिक्त युवा वर्ग को भी अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुई है। कारण बस इतना है लघुकथाएँ आकार में न्यूनतम तथा प्रभावोत्पादकता अति व्यापक है। एक–दो मिनट में ही कारण-निवारण स्व में समाहित कर सहजता पूर्वक प्रस्तुत करने में समर्थ है। संक्षिप्तता में व्यापकता का आभास, चंद शब्दों की सृजनशीलता में समस्या से लेकर समाधान तक सब कुछ समाहित होता है, भूमिका एवं वर्णन विहीन होने के साथ ही सोद्देश्य, संदेशपकता, इसका विशिष्ट गुण है। समय की बचत व सरसता इसके प्रमुख अंग होने के कारण लघुकथा आज युवाओं को साहित्य से जोड़ने का प्रमुख माध्यम बन चुकी है।’
इन्दौर की वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ. वसुधा गाडगिल जी का कहना है कि ‘वर्तमान में हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में लघुकथा सर्वाधिक लोकप्रिय विधा हो रही है। शब्दों के प्रबंधन, अनुशासन में सुगठित यह विधा सभी को आकर्षित कर रही है। हमें इस विधा को युवाओं तक पहुंचाने के लिए उनसे संबंधित विषयों, उनकी रुचियों को ध्यान में रखते हुए, उनकी समस्याओं को लेकर साथ ही साथ ही मानवीय मूल्यों, भारतीय संस्कृति, संस्कारों पर केंद्रित होकर लेखन करना होगा। विसंगतियों, विडंबनाओं के साथ समाधान भी देने होंगे। सरल, सहज हिंदी में उन्हें लक्षित करते हुए, संवेदना की अभिव्यक्ति करनी होगी। मुख्यतः हिंदी भाषा के प्रति उनमें अपनापन और लगाव उत्पन्न कराना होगा, तब वे इस विधा के प्रति आकर्षित होंगे, इसे सहर्ष पढ़ेंगे।’
उज्जैन निवासी वरिष्ठ लघुकथाकार संतोष सुपेकर जी का कहना है कि ‘लघुकथा सूत्र रूप में जीवन की व्याख्या करती है। सांकेतिकता, प्रतिकात्मकता, गूढ़ता, तीक्षणता के अलावा सूक्ष्मता भी इसकी प्रमुख विशेषताओं में हैं। लघुकथा सहज संक्षेप में कहीं गई स्वाभाविक अभिव्यक्ति तो है ही, एक आंदोलन भी है, जो व्यवस्था को बदलने की पुरज़ोर क्षमता रखती है।’
यहाँ पर गद्य साहित्य में लघुकथा को लेकर श्री गौतम सान्याल की टिप्पणी प्रासंगिक होगी- ’गद्य दक्षता की नवोन्मेश्ता का ऐसा उन्मुक्त परिसर, कथ्य की ऐसी चोट, बोधगम्यता की ऐसी अचूकता, श्लोकायतन की ऐसी संकेतगर्भिता अन्य किसी गद्य विधा में कहाँ?
लघुकथाकार जो देखता है उसे ही चुभते हुए किस्से के रूप मे लिख देता है।
जैसा कि कहा गया है, एक छोटे से कंकड़ पर भी लघुकथा लिखी जा सकती है, पर लम्बी, बेचैन, रचनात्मक प्रक्रिया से गुज़रकर ही। वैचारिकता को लेकर प्रतिबद्ध लेखक प्रयास करता है कि निष्प्राण कंकड़ पर तो वह लिखे पर उसका लिखा कभी निष्प्राण न हो। जहाँ तक युवाओं का प्रश्न है, आज माइक्रो और मिनी की प्रधानता के युग का युवा तुरत फ़ुरत परिणाम चाहता है और लघुकथा कम शब्दों में ही बहुत कुछ कह देती है।
इसके अतिरिक्त आज के तीव्र तकनीक (हाईटेक) युग में बिगड़ते रिश्तों, लिव इन के साथ ही साइबर अपराध,चलायमान फ़ोन से जुड़े अपराधों पर अनेक लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं, जो युवाओं को न केवल आकर्षित और सावधान कर रही हैं वरन उन्हें साहित्य से भी जोड़ रही हैं। इस तरह साहित्य जगत को लघुकथा का यह अप्रतिम योगदान तो है ही, युवा जगत भी इससे प्रभावित होकर इसके पठन के साथ ही लघुकथा सृजन से भी जुड़ रहा है जो कि साहित्य जगत के लिए अत्यन्त शुभ है।’
परिचर्चा के केन्द्र में युवाओं को साहित्य से जोड़ना व साहित्य सहित हिन्दी भाषा का विस्तार करना है।
मातृभाषा का सदैव प्रयास रहा है कि हम साहित्य समाज में सदैव सकारात्मकता का प्रयास करें, विमर्श आधारित विषयों पर बुद्धिजीवियों से चर्चा कर उनके विचार जानें। उन विचारों से समाधान की ओर बढ़ें। यही सकारात्मक भाव साहित्य के उन्नयन में सहायक होगा।