कोरोना काल में ऑनलाइन पढ़ाई की उपयोगिता

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कोरोन ने वैश्विक रूप से आघात पहुंचाने का काम किया है, कही लाशों के ढेर तो कही अपनों के बिछड़ने का क्रम अनवरत जारी रखा, दम तोड़ती व्यवस्थाएँ और शासकीय तंत्र की बदहाली को भी हमने अपनी आँखों से देखा और महसूस किया। ऐसे हालातों के बीच अभिभावकों ने तो बच्चों की शिक्षा का हास भी बहुत कुछ देखा। कहते है न जान बची लाखों पाएँ उसी तर्ज़ पर माता-पिता तो बच्चों के लिए यही सोचते नज़र आएँ कि जिंदा रहें तो फिर पढ़ा लेंगे।
वैसे भी हालातों पर ईश्वरीय शक्ति के अलावा किसी का नियंत्रण नहीं होता,हमारे लिए यदि समय को बदलना आसान होता तो हम सब मिलकर पिछले दो वर्षों को बदल चुके होते। बीते समय ने जिस प्रकार वैश्विक स्तर पर अपना प्रभाव छोड़ा है, उससे हम भलीभांति परिचित है। कहीं ना कहीं आज भी उस प्रभाव को महसूस कर रहे है और आर्थिक स्तर पर आई अस्थिरता को थामने में विश्वव्यापी स्तर पर काम हो रहे है। आज नहीं तो कल हम इस संकट से भी उभर जाएंगे। बात यहाँ मात्र आर्थिक संकट या सामाजिक संकट की ही नहीं है | बल्कि भावनात्मक संकट की भी है। इस भावनात्मक संकट में सर्वोपरि घरों में कैद बच्चें भी है जो मनोरोग से घिरने लगे है और अधिकांशतः अकेलेपन के शिकार होने लगे हैं।
कोरोनकाल तो अभिभावकों एवं स्कूल के लिए एक चुनौती बनकर सामने आया, प्रश्न यह भी उभरा कि अब पढ़ाई का क्या होगा ? यह एक ऐसा विषय था जिस पर हमारी आने वाली पीढ़ी का ही नहीं बल्कि हमारा आस्तित्व भी टिका हुआ था। जब किसी देश की नीँव ही मजबूत नहीं होगी तब देश कैसे आगे बढ़ पाएगा ? इससे पहले कि यह प्रश्न हमारे उपर ही प्रश्नचिन्ह लगा देता, आज की तकनीकी युग ने आन-लाइन क्लासेस के रूप में इसका भी हल निकाल लिया।
आन-लाइन क्लासेस ने हमारे बच्चों के साथ- साथ अभिभावकों एवं शिक्षा पद्दति को एक नई ऊर्जा से भर दिया। कोरोना जैसे महामारी में बच्चों के लिए भी कुछ सार्थक हो रहा है। अब शिक्षक भी पूरे समय के लिए बच्चों के साथ थे, और बच्चों को घर बैठे पढ़ाई तो कम से कम करवा रहें थे।
हर सिक्के के दो पहलू होते है उसी तरह इस ऑनलाइन क्लासेस के नवाचार के भीतर भी कुछ स्याह पक्ष रहा ही हैं। इसके स्याह पक्ष में यह भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि आपदाकाल में जब शिक्षक हर पल बच्चों के लिए उपस्थित रहने लगे तो इसका प्रभाव जितना सकारात्मक होना चाहिए था उतना हुआ ही नहीं।
नकारात्मक प्रभाव की अधिकता ने अभिभावकों को डरा भी दिया। बच्चें मानसिक स्तर पर एक प्रतियोगिता महसूस करने लगे है, वहीं दूसरी ओर शिक्षक अपने निजी जीवन के साथ-साथ प्रोफेशनल जीवन को प्रभावित करने लग गए। वें जीवन की एक अजीब सी दौड़ में शामिल हो गए, जहाँ एक तरफ स्कूल मैनेजमेंट अपने आपको हर तरह से सफल बताना चाहता था और इसी कारण से हर शिक्षक की जिम्मेदारी भी बेहद संजीदा रूप से बढ़ने लगी। शिक्षकों पर भी मानसिक दबाव बढ़ने लगा तो स्वाभाविक तौर पर शिक्षा की गुणवत्ता से कही न कहीं समझौता शुरू हो गया।
वैश्विक आपदा के दौर में नौकरियों के छीनने पर लगाम नहीं लग पाई, बल्कि लगातार नुकसानी की वजह से लाखों लोगों की नौकरियाँ चली भी गई, लाखों लोग बेघर होकर रोज़गार-धंधों से भी हाथ धो बैठें।
शिक्षा के कार्यों में आर्थिक ही नहीं वरन् भावनात्मक नुक़सान भी जीवन के जीने में बाधक बना रह रहा है। शिक्षकों के साथ बच्चे भी भावात्मक रूप से कमज़ोर साबित हो रहे है, बच्चों के लिए तो भावुक होने की उम्र में उन्हें अपने आपको बेहतर साबित करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है, मानसिक बोझ उन-पर भी बढ़ रहा है और शारीरिक विकास के इस अनमोल समय में मानसिक बोझ से झूझ रहे है।
और बड़ी बात तो यह है कि यह दुष्काल कब तक चलेगा, इस बात का भी अंदाजा लगाना मुश्किल है। हर वर्ष नए वेरिएंट्स के साथ अब कोरोना तो लगने लगा कि जीवन का हिस्सा ही हो गया।
इसी के साथ डर यह भी है कि आज के दौड़ते भागते समय में यदि हम केवल मानसिक विकास को ही छू पाए तो इसके कितने सफल हो पाएंगे? यहाँ बात सिर्फ बच्चों या अभिभावकों की ही नहीं है, बल्कि नौकरी बचाने के चक्कर में शिक्षकों को जिस मानसिक तनाव से गुजरते हम देख रहें है, हम उसका अंदाजा भी महज शब्दों में नहीं लगा सकते।
इस समय में आनलाइन क्लासेस अगर वरदान साबित हुई है तो उसकी नकारात्मकता को हम नकार नहीं सकते। इसलिए यह बहुत जरूरी हो गया है कि कोरोना के प्रभावों से बचाव रखते हुए हम बच्चों के भविष्य को और भी बेहतर बनाने के प्रयास दूंढ पाएँ और जिससे बच्चों के मानसिक विकास का हल निकाला जाए।
वर्तमान में बच्चें पढ़ाई को तनाव या प्रतियोगिता के रूप में न देखकर एक उत्तम भविष्य की ओर बढाए जाने वाले सफल कदम की तरह देखें। और यह काम अभिभावकों के साथ-साथ स्कूल का भी है कि समय समय पर अपनी दोनों धार शिक्षक-विद्यार्थी दोनों को मजबूत करें।

#अदिति सिंह भदौरिया,
लेखिका
इन्दौर, मध्यप्रदेश

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