(१)
उद्भव जिनसे हुआ उन्हें ही भूल अधिकतर जाते।
ओदे-सूखे खुद रह पाला जिसने उन्हें भुलाते।
हुए स्वतंत्र और आये जैसे ही पैसे गल्ला;
बिसराकर सब फ़र्ज़ बहुत अपशब्द सुना ठुकराते।
(२)
ब्याह रचाते ही बहु होते अलग पिता-माता से।
स्यात न रखते कुछ भी मतलब ‘दक्ष’ पिता-माता से।
खाने वाली चीजें लाते नित्य लौटते सँग में;
पर कुछ ही कहते होंगे लो चीज पिता-माता से।
(३)
माइ-बाप की थाती बाँटें सूत – सूत सुत सारे।
हिस्सा लेकर दुष्ट तनय बहु उनको करें किनारे।
जब तक हाथ चले उनके रह अलग बनाया-खाया;
पर अक्षमता में माँगी रोटी तो गए दुत्कारे।
(४)
पीड़ा में माँ-बाप कराहें पर कपूत ना लखते।
ऊपर से सुन करुण स्वरों को बुरा-भला ही कहते।
कहें अगर बेटवा ला दो इक टिकिया दर्द हरे जो;
पैसे दो बूढ़ा-बुढ़उ लाऊँ टिकिया तब बकते।
(५)
जिंदा रहते कभी न पूछा माइ-बाप क्या खाया?
व्यथित हृदय की पीर न पूछी कैसा दर्द समाया?
किन्तु मृत्यु उपरांत बैठ घड़ियाली अश्रु बहाये;
और ‘दक्ष’ धिक्कार! तेरहीं, दसवाँँ व्यर्थ कराया।
कौशल किशोर मौर्य ‘दक्ष’
हरदोई यूपी