मीरा की आंखों से अश्रुप्रवाह जारी है । सूरदास जी की आंखों से अश्रु प्रवाह जारी है । राधा के नयन भी बरस रहे हैं और गापियों की विरह वेदना आह बनकर निकल रही है । ये वो दृश्य हैं जो प्रेम को नई उंचाईयो देते हैं । स्वार्थ रहित प्रेम, तन का नहीं मन के आकर्षण से भरा प्रेम ‘‘ढाई आखर प्रेम का’’ वाला प्रेम । मीरा को चाहिये केवल कृष्ण का दर्शन, राधा को चाहिये केवल कृष्ण की बांसुरी से निकलने वाले सरगम का नाद, गोपियों को चाहिये कृष्ण के साथ होने का अहसास और सूर को चाहिये कृष्ण की बालोचित्य क्रीड़ायें । सबको कृष्ण चाहिये, सब का प्रेम कृष्ण के साथ जुड़ा है सबके प्रेम की दिषायें भिन्न हेंै, सबके मन में अपने प्रभु के प्रति समर्पण है सबके सामने ‘‘ढाई आख्र प्रेम का’’ का भाव है । मीरा नाच रही है ‘‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई ’’, नाच रही है तन्मयता के साथ मानो वह योग कर रही हो अपने योगी के लिए, योगेश्वर के लिए । योगेश्वर को पाने के लिए योग करना ही होगा, मीरा कर रही है । नाचते-नाचते वह समा जाना चाहती है अपनी समाधी में जहां केवल और केवल उसके कृष्ण होगें सामने । फिर इसके आगे कुछ नहीं………. कृष्ण सम्मुख रहें, कृष्ण हर क्षण हर पल उसके अपने ही रहें । उसकी दृष्टि केवल और केवल कृष्ण को देखना चाहती उन्हें महसूस करना चाहती हे । उसके लिए सारी प्रकृति कृष्ण में ही समाहित जान पड़ती है उसे कुछ नजर नहीं आता फूल को देखती तो कृष्ण होते हैं, कांटे को देखती है तो उसमें भी कृष्ण ही हैं । धरा की प्रत्येक वस्तु कृष्णमय है । कृष्ण ओझल नहीं हो सकते, कृष्ण कहीं नहीं जा सकते न सूरदासजी के पास और न ही राधा के पास । चलें भले ही जायें पर नजर आते रहें मीरा को भी । उसे इस बात से कोइ्र ईष्र्या नहीं है कि कृष्ण राधा के साथ बैठकर बांसुरी बजा सकते हैं उसे इस बात से कोई द्वेष नहीं कि कृष्ण गोपियों के साथ रास कर सकते हैं उसे तो केवल इस बात से मतलब है कृष्ण कहीं भी रहें पर उसे नजर आते रहें उनकी मनमोहक छवि उसके नयनों से कभी ओझल नहीं होने पाये । वह जहर का प्याला पी लेती है क्योंकि उसमें भी उसे कृष्ण नजर आ जाते हें कृष्ण को अपने में ही समाहित करने का इससे अच्छा अवसर और कब मिलेगा । राजदरबार प्रतीक्षा कर रहा है कि कब मीरा कहे कि नहीं वह जहर नहीं पी सकती अभी तो उसे और कुद दिनों के लिये जीवित रहना है अपने कृष्ण के लिये जीवित रहना है चारों ओर निस्तब्धता छायी हुई है सब प्रतीक्षा कर रहें हैं मीरा के न बोलने की पर मीरा को प्याले जहर नजर आ ही कहां रहा है उसे तो उसमें नजर आ रही हैं दवि अपने कृष्ण की । कृष्ण ने ही रचा है छलावा, छलिया है न कृष्ण । मीरा उसे छलावे को भी अपने अंतर्मन में समाहित कर लेना चाहती हे ‘‘ढाई आखर प्रेम का’’ का । वह प्रम ही क्या जिसके आगे प्रष्नचिन्ह लगे, वह प्रेम ही क्या जिसमें संदेह पैदा हो, वह प्रेम ही क्या जो अग्नि परीक्षा से न गुजरे, वह प्रेम ही क्या जो षडयंत्र का षिकार न हो । मीरा तो माटी की मूरत में कृष्ण की छवि को निहार लेती है, वह वीणा की सरगम में कृष्ण की बांसुरी को सुन लेती है, वह जहर के प्यषले में कृष्ण को पा लेती है । मीरा नहीं हिचकी उसे हिचकना भी नहीं था । वह प्रेम दिवानी जो थी ं ्रपेम अंधा कर देता है प्रेम पागल कर देता है, प्रेम सुधबुध भुला देती हेै, प्रेम समर्पण का प्रतीक बन जाता है, प्रेम अवलंबन का प्रतीक बन जाता है । प्रेम धर्म का प्रतीक बन जाता है, प्रेम पत्रिता का प्रतीक बन जाता है, प्रेम अपने को समाहित कर देने की भावना का द्योतक हो जाता है । मीरा का प्रेम समर्पण का प्रेम है, मीरा का प्रेम भरोसे का दर्पण है, मीरा का प्रेम तप का प्रतिफल है, मीरा का प्रेम संगीत का स्वर है । ‘‘ढाई आखर प्रेम का’’ नहीं आधा वर्ण भी नहीं चाहिये पूरा आखर चाहिये प्रेम का । मीरा समाहित हो जाती है पूरी तरह ताकि वर्ण अधूरा न हो, ताकि शब्द अधूरा न हो ताकि कहावत अधूरी न हो । मीरा भरे राजदरबार में जहर का प्याला उठा लेती है हाथों में और एक ही सांस में पी जाती है । मीरा नाचती है मीरा गाती है ‘‘मेरो तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई ’’ । एक दिन वह कृष्ण की मूर्ति में ही समा जाती है सषरीर । सारा जग देखता है प्रेम के इस अनूठे बंधन को ।
राधा का प्रेम भिन्न है । राधा के सामने मुरली बजाते कृष्ण खड़े हैं । कभी किसी पेड़ की शाख पर बैठे नजर आते है तो कभी पत्तों से अपने को छिपाते नजर आतेहें । राधा बाुसंरी की आवाज तो सुन रही है पर कृष्ण दिखाई नहीं दे रहे हैं । कृष्ण छिप जाते हैं । भला कृष्ण छिप भी सकते हें राधा सोचती है उसकी निगाहें खोजती हैं चारों ओर……फिर राधा की व्याकुलता बढ़ती जाती है । शुक्र है कि उसे मुरली की धुन सुनाई दे रही है भले ही कृष्ण दिखाई न दे रहे हों । न दिखाई दें राधा की पलकों में तो उनकी छवि बसी है वह नेत्र बंद कर देख लेती है कृष्ण को अरे यहां कदम्ब के पेड़ पर घने पत्तों के बीच लेटे मुरली बजा रहे हैं ‘‘छलिया’’ । कृष्ण को छलिया कहलाने में कोई नाराजगी नहीं है वे मुस्कुरा देते हैं ‘‘अहा! कितना सुन्दर नाम रखा है राधा ने, राधा के श्रीमुख से कृष्ण सुनना भाता भी नहीं हेै उन्हें तो छलिया ही पुकारना चाहिये’’ उनकी मुस्कान ओठों के दायरों से बाहर निकल जाती है । कृष्ण राधा को परेषान करते हैंपर राधा परेषान नहीं होती क्योंकि वह छलिया को पहचान चुकी है । उनकी मोहक छवि को अपनेनयनों में उतार चुकी है । पर मुरली की ध्ुान को कैद नहीं कर पाई है इसलिये जब भी मुरली के स्वर गूंजते हें चारों दिशाओं में राधा सुधबुध खो देती है । संगीत होता ही ऐसा है । संगीत दूसरी दूनिया में ले जाता हे, संगीत आनंद के परिवेश में ले जाता है संगीत कल्पनालोक में ले जाता है । संगीत अपने होने या न होने की परिधि से बाहर ले जाता है संगीत है तो सब कुछ है । संगीत ब्रम्हनाद बन जाता है मुरली बज रही है उसका नाद चहुंदिशि भले ही सुनाइ्र्र न दे रहा हो पर राधा के कानों में गूंज रहा है राधा के नेत्रों से अश्रु प्रवाहित हो रहें राधा रो नहीं रही है उसके नेत्रों से बह रहे आंसू प्रसन्नता के हैं आनद के हैं, योग के हैं समाधि के हेंै । मीरा के योग से अल, मीरा की समाधि से अलग । संगीत के स्वर उसके अंतर्मन में समा जाते हैं मानो उसने कृष्ण को ही अपने अंतर्मन में समाहित कर लिया हो अब उसे कृष्ण नजर न भी आए तो कोई मतलब नहीं, अब कृष्ण कहीं भी चाले जायें तो उसे परवाह नहीं उसके अतंर्मन में तो वे सदैव हें ही । उसे कुछ नहीं चाहिये उसे तो कवल कृष्ण की मुरली का नाद सुनना है उसे तो केवल सदा साथ होने का अहसास करना है । कृष्ण कहीं भी रहें पर वे राधा को मुरली का नाद सुनाते रहते हैं । राधा उसमें डूबती रहती है । राधा कृष्ण के साथ होने का अहसास करती रहती हे । बस इतने से ही राधा सर्वस पा लेती है । उसके अंतर्मन से मुरली की नाद सुनाई देने लगती हे अब उसे बाहर घूम-घूम कृष्ण को ढूढ़ने की आवश्यकता नहीं उसके डाली-डाली कृष्ण को खोजने की आवश्यकता नहीं है । भले ही कृष्ण उसके साथ लुकाछिपी खेल लें पर राधा के अंतर्मन से बेहतर स्थान छिपने के लिए उन्हें मिल ही नहीं सकता । उसका प्रेम ढाई आखर से बहुत उंचा नजर आने लगता है ।
गोपियां विरह वेदना से व्याकुल हैं । कृष्ण नजर नहीं आ रहे उन्हें । कृष्ण का होना उनकी दिनचर्या में शामिल है । उनके लिए कृष्ण हैं तो भोर है, कृष्ण हैं तो सांझ है, कृष्ण हैं तो तारों से सजी चन्द्रमा की महफिल है । पर कृष्ण नहीं है वे तो मथुरा छोड़कर जा चुके हैं । सारी धरा उदास है, पेड़ पौधे उदास हैं, पक्षियों की चहचहाट भी खामोष है और गायें रंभा नहीं रहीं हैं। उनकी मटकी कृष्ण के कंकड़ से फूटने का इंतजार कर रही है । यूं तो वे जानती हें कि कृष्ण हर जगह व्याप्त हैं,यूं तो जानती हैं कि कृष्ण हर घर में मथे जा रहे माखन में भी व्याप्त हें, यूं तो वे जानती हें कि कृष्ण बांस की मुरली में भी व्याप्त हें, यूं तो जानती हैं कि कृष्ण पुष्पित फूलों में भी व्याप्त हैं, यूं तो वे जानतीं हैं कि कृष्ण मथुरा की रज में व्याप्त हें पर कृष्ण साक्षात सामने नहीं हैं वे कृष्ण को केवल महसूस नहीं ही नहीं करना चाहती बल्कि जीवंत देखना चाहती हैं, साक्षत देखना चाहती हेंै, मटकी फोड़ते देखना चाहती हैं, शारारत करते देखना चाहती हेंै, बंहिया मड़ोरते देखना चाहती है। पर कृष्ण नहीं हैं मानो उनका तन तो है पर सांसें नहीं हैं, मानो पुष्प तो हैं पर सुगंध नहीं हें, मानो भोर तो हे पर सूरज नहीं हे, मानो मक्खन तो है पर स्वाद नहीं है, मानो चनद्रमा तो नभ पर चमक रहा है पर तारे संग नहीं हैं । गोपियां उदास हैं उनके लिये कृष्ण के होने का मतलब स्वंय के शरीर में आत्मा होने का प्रमाण है, उनके लिए कृष्ण के होने का मतलबयमुना में बहती कल-कल जल का प्रवाह है, उनके लिए कृष्ण के होने का मतलब बांसरुी का नाद है । कृष्ण नहीं हैं सारी मथुरा उदास हे, गोपियां उदास हैं उधौ उदास है । उधौ तो कृष्ण का संदेशा लेकर आया है न कि ‘‘आप सभी मेरा इंतजार नहीं करना मुझे और भी बहुत सारे काम करने हें जग में’’ । भला यह भी कोई संदेषा हुआ । इंतजार न करें अपनी संासों के चलने का इंतजार न करें, मुरली की तान सुनने का इंतजार न करें, और बहुत सारे कामों में गोपियां सम्मलित क्यों नही हैं क्या गोपियों का उद्धार नहीं करना आपको । उधौ इससे तो अच्छा तुम आते ही नहीं कम से कम इंतजार तो करते रहते कृष्ण का । कृष्ण आप वाकई छलिया हैं, हमें छल कर चले गए और जीवन भर की वेदना दे गए । कृष्ण आप थे तब भी तो परेषान ही करते थे न । पनघट जाते समय हमारी महंगी मटकी को फोड़ देते थे कंकड़ मारकर, बड़ी मेहनत से छाछ से बनाये मक्खन को चुचाप आकर चोरी से खा जाते थे अच्छा हुआ चले गए । अब हम निष्चिन्त होकर यमुना के तट पर बैठ तो पायेगें हमें हमें हमारे वसन के चोरी हो जाने का भय तो नहीं रहेगा, हमें अपने द्वार बंद करने की चिन्ता तो नहीं रहेगी, हमें गाय के मुरली की तान पर होशहवाश खोकर यूं ही खाना छोड़ देने से निशा में उन्हें चारा डालने की चिंता तो नहीं रहेगी । कृष्ण पर हम अब पनघट कैसे जायेगें सूनी राहें हमें जाने भी कैसे देगीं, हम यमुना के तट पर भी नहीं जा पायेगें कृष्ण के वहां न होने से वह भी तो उदास है, हम वन भी नहीं जा सकते कृष्ण के न होने से पेड़-पौधे निर्जीव जो गये हें वो देखो श्यामा गाय को जो मूरत बन गइ्र हेै वह तो अपने ही बछड़े को दूध नहीं पिला रही है फिर हमें कैसे दूध देगी, दूध नहीं होगा तो छाछ कैसे बनायेंगें और छाछ नहीं बनेगा तो मक्खन कैसे बनेगा चलो अच्छा है अब मक्खन बनाने का फायदा भी क्या है उसे खाने वाला तो हमें छोड़कर चला गया है । गोपियां उदास हैं उनके नेत्रों से बह रही है अश्रुधारा पर इससे किसी को भी कोई मतलब नहीं है क्योंकि यहां हर एक के नत्र अश्रु बहा रहे हेंै । कृष्ण छल किया हैं हमसे छलिया कहीं के ।
सूर का अपना प्रेम हे । उनके नेत्र में ज्योति नहीं हे तो क्या, वे मन की आंखों से देख रहे हैं वह सब जो घटित हो चुका हे वर्षो पहिले । उन्होने तो कभी जाना ही नहीं अपने बचपन को, उन्होने तो कभी बाल्यपन की क्रीड़ा की ही नहीं, उन्होने तो कभी मातृ-पित् स्नेह के चरमोत्कर्ष को महसूस ही नहीं किया फिर भी चलचित्र की भांति बंद आखों में उतर जाता है कृष्ण का बचपन । वो यशोदा को सताना, वो गोपियों के साथ लीला करना वो वृक्ष की डाली पर बैठकर बांसुरी बजाना वो राधा के साथ लुका छिपी खेलनकर उन्हें परेशान करना, यमुना तीर जाती गोपियों की मटकी को फोड़ना वो गायों को वन की ओर लेकर जाना, वो मां के सामने रूठ जाना वो माटी को खाना और ओखली में सहज में ही बंध जाना, वो माॅ को अपने श्रीमुख में ही तीनों लोकों का दर्षन कराना ओह ! कितने चित्र कितने स्वरूप, कितनी लीलायें अद्भुत, अवर्णनीय, परमसुख को प्रदान करने वाली । कृष्ण आप तो परमपिता परमेश्वर हैें आप तो विधाता हैं पर स्वंय विधान से बंध कर लीलायों कर रहे हैं । आपने धरा पर जन्म लेकर धन्य किया है धरावासियों को । सूर देख लेते हैं अपनी मुंदी आंखों से उनके आंेंठ फड़फडा जाते हैं गाने को । मुंदी आखों से वे गाते जाते हैं कृष्णगान दिन हो या रात, सुबह हो शाम, उनकी पदावली में बरसते रहते हैं नेह के नीर, उनकी पदावली की एक-एक सरगम में स्पष्ट नजर आने लगती है कृष्ण की लीलायें । सूर आपने जो पाया वो मीरा से कम है, या राधा से कम हे, या गोपियों से कम हेै आपने तो नेपथ्य में रासलीलाओं को देख लिया । आपके अश्रु हर दृश्य के साथ बह निकलते हैं आप उस काल के कालपुरूष बन जाते हैं । मानो आपके सामने घटित हुई हैं कृष्णलीलायें । यषोदा माॅ के मातृत्व को महसूस कर लेते हैं मुंदी आंखों से, राधा के प्रेम को महसूस कर लेते हैं मुदी आखों से, गोपियों के प्रेम को महसूस कर लेते हें मु्रदी आंखों से मुरली की धुन सुने लेते हैं मुंदी आखों से और हर बार अश्रु बहा लेते हें मुंदी आंखों से । सूर आपको और क्या चाहिये आपने तो वो पा लिया है जो कृष्ण के संग रहकर उधो नहीं पा पाये आपने तो वो पा लिया है जो गापियां नहीं पा पई, आपने तो वो पा लिया जो राधा नहीं पा पाई आपने तो वो पा लिया हैे जो शायद यशोदा माॅ बनकर और वासुदेव पिता बनकर नहीं पा पाये, आपने तो वो पा लिया जो आपके मित्र सुदामा नहीं पा पाये भले ही उनके चरण रज को आपने अमरत्व प्रदान कर दिया हो । आपने मुंदी आंखो से कृष्ण को गायों से बातें करते सुन लिया आपने मुंदी आंखो से कृष्ण को वृक्षो से बातें करते सुन लिया आपने मुंदी आंखो से पक्षियों के साथ वार्तालाप को सुन लिया आपने मुंदी आंखो के साथ कालिया नाग को मथने का दृष्य देख लिया आपने मुंदी आंखों के साथ राक्षसों के संहार को देख लिया आपने मुंदी आंखो से पूतना का विनाश देख लिया धन्य हैं सूर आप सचमुच आपने तो वो पा लिया जो कोई और नहीं पा सकता जो अर्जुन भी नहीं पा पाये जो बड़े भाई बनकर बलराम भी नहीं पा पाये, जो हमेषा मुकुट में रहने के बाद भी मोर पंख नहीं पा पाये, जो आपकी सखा कही जाने वाली पांचाली नहीं पा पाई, जो रूकमणी से लेकर सत्यभामा भी नहीं पा पाई आपने वो सब पा लिया वो भी इस युग में जब द्वापरयुग व्यतीत हो चुका है जब कलयुग का प्रारंभ हो चुका है । आपकी पदावली गाते हुए तब आपके नयनों ने नीर बरसाये और अब हमारे नेत्र नम हो रहे हैं । आपका प्रेम ‘‘ढाई आखर प्रेम का’’ से उपर उठ चुका हेै आपका प्रेम किसी विरहनी के प्रेम से कमतर नहीं है आपका प्रेम कालजयी प्रेम हे जिसका न भूत है और न भविष्य जो सदैव वर्तमान ही बना रहता है अद्भुत प्रेम की दांस्ता हेै, मीरा के प्रेम की तरह, राधा के प्रेम की तरह गोपियों के ्रपेम की तरह याकि सूर के प्रेम की तरह।
प्रेम अब कहां है ? प्रेम तो खत्म हो चुका है मीरा के साथ, राधा के साथ गोपियों के साथ और सूर के साथ अब तो केवल दैहिक आकर्षण है उसी की इबारत लिखी जाती है, उसी को परिभाषित किया जा रहा है । ‘‘ढाई आखर प्रेम का’’ उसका तो अवसान हो चकुा है । न प्रकृति से प्रेम रहा न धरा से फिर किसी ओर के प्रेम का कल्पना ही बेनामी है । आखों के अश्रु, प्रेम में मीरा की तरह बहने को आतुर हैं, राधा की तरह मुरली की ध्ुान पर नृत्य करने को आतुर हें, गोपियों की तरह प्रतीक्षा करने को आतुर हैं, सूर की तरह तरंगित होने का आतुर है। पर अश्रु हैं कि बह ही नहीं रहें आखों की पलकें नम नहीं हो रहीं हेंै । अश्रु का रूप परिवर्तित हो चुका है अश्रु तो बहते हें पर वे न तो मीरा की तरह होते हैं और न ही राधा की तरह । ढाई आखर का प्रेम अब रहा कहां । प्रेम अब आत्मसात करने का नहीं प्रदर्षन करने का द्योतक हो चुका है । बिहारी की नायिका ढूंढ़ती दिखाई दे रही है ‘‘ढाई आखर प्रेम का’’ को’’ । लुप्त हो गई है वह एक चाहत को लेकर मीरा के प्रेम को लेकर राधा के प्रेम को लेकर । एक दूसरे के प्रति भी तो प्रेम नहीं रहा है ‘‘इंसान से इंसान का हो भाईचारा’’ की पंक्ति विलाप करती नजर आ रही है । अब तो कल्पना करना भी व्यथित कर देता है कि कभी इसी धरा पर निष्चल प्रेम की दीवानी मीरा का जन्म हुआ था, क्या सच में कभी इसी धरा के बरसाने में राधा का प्रादुर्भाव हुआ था, क्या वाकई सूर के चक्षु कृष्ण के प्रेम में अश्रु विसर्जित करते थे । क्या यही युग परिवर्तन है जहां किस्सा कहानी तो हें पर उनमें जीवंतता डालने का उपक्रम नहीं हेै ।
सुना तो है कि धरा सौन्दर्ययुक्त है, सुना तो है कि धरा समर्द्ध है, सुना तो है कि इन्द्रधनुषीय आभा अपना ओज बिखेरती है पर देखा नहीं किसी ने । गर देखा भी हैं तो महसूस नही किया किसी ने, गर महसूस कर भी लिया तो संजोकर नहीं रखा किसी ने । धरा फिर किसी दिव्य पुरूष के अवतरण की राह देख रही है, धरा किसी कृष्ण के अवतरण की राह देख रही है जो प्रकृति के सौन्दर्य से परिचित कराये, धरा फिर सोलह श्रंृंगार से युक्त नायिका की बाट जोह रही है जो ढाई आखर प्रेम का’’ की भावना को सजीव करे । वनाच्छादित पहाड़ों पर तो आज भी लाल-लाल टेसू खिल रहे हैं, गुलाब तो आज भी कांटों का संसर्ग पाकर भी मुस्कुरा रहा है, नायिका तो आज भी श्रंृ्रगार कर रिझाने का प्रयास कर रही है पर प्रेम की उन हिमलयी उंचाई तक कोइ्र नहीं पहुंच पा रहा है जहां मीरा खड़ी नजर आती हे जहां राधा खड़ी नजर आती हें जहां गोपियों खड़ी नजर आती हेंै । सावन के काले काले बादल अब विरह वेदना के गीत गाने को मजबूर नहीं कर रहे हैं, बासंती बयार प्रेयसी की इंतजार करते नजर नहीं आ रहे हैं । ऋतुयें तो वही हैं केवल संवदेनायें गुम हो गई हैं, केवल अभिव्यक्ति दृष्टिहीन हो गई्र है और इस बीहड़ में ‘‘ढाई आखर प्रेम का’’ की भावनायें भी गुम हो चुकी हैं ।
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर म.प्र.