बदल जाती है तारीखें यहाँ
वक्त भी हरदम बदल जाता यहाँ
अपने अपने ना रह पाते यहाँ
तो भला गैरों से शिकवा कैसा?
मुलाकात होकर भी बात नही होती
साथ रहकर भी एहसास नही होता
बयां करके भी खामोशी नही टूटती
तो भला नादानों से शिकवा कैसा?
बादल होकर भी बरसात नही होती
प्यार होकर भी प्रीत नही निभाई जाती
पास रहकर भी साया नही बना जाता
तो भला बेगानों से शिकवा कैसा?
हसरते होकर भी सपना पूरा नही होता
चांद करीब होकर भी छूआ नही जाता
हीर रांजा का होकर भी हो नही पाता
तो भला परवानों से शिकवा कैसा?
रेखा पारंगी
बिसलपुर पाली राजस्थान