आज सुबह से ही शर्मा जी अपने घर के मुख्य द्वार के सामने ही बैठे थे । उनकी निगाहें बार-बार सड़क की ओर चली जातीं पर सारी सड़क तो सूनी थी । कोई चहल पहल नहीं थी । सुनसान सड़क को देखने की अब तो उनकी आदत हो गई । शुरू-शुरू में उन्हें बुरा लगा था । सूनी सड़कें डरावनी लगती थीं भुतहा सन्नाटा उन्हें कचैटता था पर अब तो आदत हो गई है । बुरा तो अब भी लगता है पर डर खत्म हो गया है आखिर वे कब तक डरते रहते । लाॅकडाउन लगे इक्कीस दिन व्यतीत हो गए थे अब लांकडाउन को और बढ़ा दिया गया था । इन इक्कीस दिनों का सफर उनके जीवन का सबसे अधिक खराब दौर था । यकायक वे अपने घर में कैद होकर रह गए थे । उस दिन काम पर से आये थे तो कल क्या-क्या करना है का पूरा कार्यक्रम तय करके आये थे । यह उनकी आदत भी थी और मजबूरी भी । काम इतना ज्यादा होता था कि वे यदि पहिले से रूपरेखा बनाकर न रखें तो काम सिमट ही न पाए । कहने को तो वे सेठ के यहां मुनीम थे पर सेठ ने सारा कुछ उनके ऊपर ही छोड़ रखा था । दसियों साल से काम करते रहने से उन पर उनके परिवार का ऐसा विश्वास जम गया था कि तिजौरी की चाबी तक सेठ उनके पास छोड़ देते थे हालांकि शाम को वे जब घर लौट रहे होते तब वे चाबी सेठ का दे देते और वे दे ना दें तो सेठ ही मांग लेते ‘‘मुनीम साहब चाबी नहीं दी आपने’’ । सेठ कहते हुए रूखी हंसी हंसते ताकि शर्मा जी को बुरा न लगे । शर्मा जी इतने सालों से उनके यहां काम कर रहे हैं इसलिए वे भी सेठ जी की फितरत को भलीभांति समझ चुके थे कि सेठ उन पर जितना भरोसा प्रदर्शित करते हैं वास्तव में वे उतना भरोसा करते नहीं हैं, उतना क्या बिल्कुल भी नहीं करते वे तो केवल दिखाने के लिये कह देते हैं ‘‘हमारे यहां तो हमारे मुनीम साहब ही समझ लो कि दुकान के मालिक है, मुझे भी पैसों की जरूरत आ जाए तो इन्हीं से लेना पड़ते हैं…’’ । इसके पीेछे का गणित शर्मा जी कई बार महसूस कर चुके हैं । एक बार उनके साले को पैसे की जरूरत थी और वे उसे पैसा देना नहीं चाहते तब उन्हें ही ढाल बना लिया गया था ‘‘देखो साले साहब आपको लगता होगा कि दुकान हमारी है तो हम कुछ भी कर सकते हैं पर हमारे यहां जो मुनीम साहब हैं ने इतने अनुशासन वाले हैं कि कई बार तो मुझे चाय के पैसे तक देने में इनकी मनुहार करनी पड़ती है……अब ये ठहरे हमारे पिता जैसे तो हम उनसे कुछ बोल भी नहीं पाते…सो सह रहे हैं…..और कितने दिनों का इनका जीवन है इसी दुकान से उनका बालपन चला है तो बुढ़ापा भी इसी दुकान से कट जाए तो अच्छा है’’ कहकर वे अपने चेहरे पर ऐसे भाव बनाते मानो वे मुनीम साहब को पिता जैसा नहीं बल्कि पिता ही मानते हों और उनके हर आदेश का पालन वे पुत्र बन कर कर रहे हों । शर्मा जी समझ जाते कि अब उन्हें क्या करना है वे कठपुतले की तरह अपने तयशुदा वाक्यों को दोहरने लगते
‘‘देखिए सेठ जी इस बार हमारा मुनाफा कम हो गया है….आपके खर्चे में कटौती की जायेगी…और घर के खर्चे में भी…..पैसा है । नहीं….अभी जो है उससे फलां व्यापारी का भुगतान करना है कल फलां व्यापारी बैंक में चेक लगा देगा तो बैंक में रूपया जमा करना पड़ेगा……’’
‘‘अब मुनीम साब ये भुगतान और पैसे आप जानो…..कैसे आप करते हैं मुझे कुछ नहीं पता रहा सवाल मेरा तो भैया मैं अपने खर्चे कम कर लूंगा…’’ । वे अपने बांये हाथ से अपने माथे पर लगे राधावल्लभीय टीके के आसपास उंगली घुमाकर उसे ठीक करने लगते इस प्रक्रिया में उनका चेहरे क कुछ भाग ढंक जाता यह चेहरे का वह भाग होता जिस पर उनके भाव प्रदर्शित हो रहे होते ।
‘‘मुनीम साब मेरे साले साहब को कुछ काम है…..वो आपको बता देगें……देखो मुनीम साब आप जानते हैं ने कि साले साहब हमारे जीवन में कितना महत्व रखते हैं इसलिये इनका काम तो कर ही देना….वरना घर में भी लड़ाई होने लगेगी….’’ वे एक अच्छे अभिनेता की तरह अपना रोल निभाते और उन्हें विलेन बनने पर मजबूर कर देते । शर्मा जी भी अपना रोल निभने लगते
‘‘देखिए सेठ जी पैसे के अलावा मैं सारे काम करने के लिये तैयार हूॅं…पैसे अभी हैं ही नहीं उल्टे अभी दो लाख रूपयों की सख्त जरूरत है……’’
सेठ जी अपना मुंह घुमा लेते शायद उनके चेहरे पर मुस्कान तैर रही होगी ‘‘मैंने मुनीम साहब को कितना बढ़िया ट्रैंड किया है……पैसे देने से भी बच गया और बुरा बनने से भी बच गया….लगता है अब मुनीम साहब की तनख्वाह बढ़ानी पड़ेगी…..’’
साले साहब सारी बातों को पहिले से ही सुन चुके होते थे इसलिये ‘‘कुछ नहीं…रहने दो…’’ कहकर अपनी बात रखने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते ।
‘‘नहीं नहीं साहब आप बतायें…..आपकी बात सरमाथे पर…..मेरी भलां इतनी कहां औकात की अपने सेठ जी के साले साहब की बात न मानूं और फिर सेठानी जी का भी तो मान रखना है….आप बतायें….मुझ से जो बन पड़ेगा मैं अवश्य करूंगा…..केवल अभी कुछ दिन पैसे बगैरह की बात मत कीजियेगा……क्योंकि यह बात मैं नहीं मान पाऊंगा….सेठ जी को तो कुछ मालुम रहता नहीं हे वे तो चेक ऐसे जारी कर देते हैं जैसे पम्फलेट बांट रहे हो फिर मुझे ही परेशान होना पड़ता है…’’ शर्मा जी सांस लेने के लिये रूके । वे अभी और कुछ भी कहना चाह रहे थे पर साले साहब ने अपेक्षित प्रक्रिया स्वरूप कुछ भी कहने से इंकार कर दिया । सेठ जी ने राहत की सांस ली जिसकी गूंज सभी को सुनाई भी दी । मुनीम साहब ने अपनी राहत की संास को बही-खाते में लुप्त कर लिया । साले साहब इस चालाकी को न समझे हों ऐसा तो हो नहीं सकता पर उनके पास चालकी को व्यक्त करने का कोई प्रमाण नहीं था । शर्मा जी का काम ही यही था कि वे कोई प्रमाण न छोड़ें…इंकमटैक्स का रिटर्न कम से कम जमा करें और ज्यादा इंकम होने का प्रमाण न छोड़ें । वे सेल्सटैक्स का टैक्स भी इतनी चतुराई से कम जमा करते कि सेल्सटैक्स के साहब को सेठ जी पर दया आ जाती ‘‘अरे बेचारे तुम्हारे सेठ जी की तो कोई खास इंकम है ही नहीं फिर भी तुम्हें वेतन दे रहें हें….कितने भले आदमी है…..जाहिर तक नहीं होने देते कि उनकी दुकान का बिक्री-बट्टा बहुत कम है….’’ । सेल्स टैक्स वाला अफसर सेठ जी के साले के जैसा भोला नहीं था वह सेठ जी की और मुनीम साहब की सारी चतुराई समझ रहा था पर मुनीम साहब ने कोई प्रमाण नहीं छोड़ा था इसलिये वह कुछ नहीं कर पा रहा था पर एक गांठ उसने बांध रखी थी कि कभी तो सेठ जी उसके पचड़े में पड़ेगें तब सारा कुछ वसूल लिया जायेगा । मुनीम साहब प्रमाण न छोड़ने के सिद्धहस्त खिलाड़ी होने के बाद भी अपने लिये कुछ नहीं कर पाते थे । सेठ जी उनके सिर पर सवार रहते और उनकी नजरें तिजौड़ी से लेकर हर कटने वाले बिल और न कटने वाले बिलों की राशि पर चिपकी रहती । वे मन ही मन सारा कुछ जोड़ घटाना करते रहते और शाम को जब मुनीम साहब हिसाब किताब सामने रखते तो वे उसका मिलान अपने मन में ही जोड़े ग जोड़ घटाना से करते । उनका गएित एक दम सही साबित होता । उनके चेहरे पर अपनी ही शाबासी की मुसकान खिल उठती । मुस्कान तो मुनीम साहब के चेहरे पर भी खिल उठती क्योंकि वे दिन भर में सेठ जी के गणित लगाने को समझ चुके होते थे और हिसाब उसी के अनुसार बनाते थे ।
शर्मा जी सेठ जी की काईयां प्रवृति के बाद भी उनके यहां टिके थे । उनके ही सामने कितने कर्मचारी आए और चले गए पर शर्मा जी की कुर्सी जस की तस बनी रही । शर्मा जी संतोषी स्वभाव के थे ‘‘अरे इतना तो मिल ही रहा है न कि हम और हमारे दोनों बच्चे अपना पेट भर पा रहे है तो ठीक है भगवान की कृपा ही है…’’ । वे कैलेण्डर में इत्मीनान से बांसुरी बजाते भगवान जी की ओर देख लेते भगवान जी भी शायद उनकी ओर ही देख रहे हैं ऐसा मानकर वेहाथ जोड़ लेते और मन ही मन में उनका आशीर्वाद प्राप्त कर लेते । यही उनकी पूजा थी । अगरबत्ती वे दुकान पर ही जाकर लगाते ‘‘अब घर पर लगाओ या दुकान पर उससे क्या फर्क पड़ता है’’ वे एक साथ खुशबू वाली पांच अगरबत्ती सुलगाते और सारी दुकान में धुआं फैलाकर अपनी कुर्सी के बाजू में ख्ुारस लेते । इससे उन्हें दिन भर खुशबू का अहसास होता रहता । हालांकि सेठ जी को उनका पांच अगरबत्ती लगाना अखरता ‘‘जब दो अगरबत्ती से ही काम चल सकता है तो फिर पांच अगरबत्ती क्यों जलाते हो मुनीम साहब वो भी इतनी मंहगी वाली’’ सेठ जी बुरा टाइप का मुंह बनाते ।
‘‘आप समझते नहीं हैं सेठ जी लक्ष्मी माॅ की कृपा उन्हें अगरबत्ती लगाने से ही आती है हम कम अगरबत्ती लगायेंगे तो कम कृपा आयेगी …आप कहें तो दो क्या एक ही अगरबत्ती लगा दिया करूंगा फिर मुझसे नहीं कहना कि आज दुकान में मुदी क्यों रही….’’ । शर्मा जी सेठ जी की कमजोर नस को समझ चुके थे और उसे गाहे-बेगाहे दबाने में माहिर भी हो चुके थे । सेठ जी चुप हो जाते । वे अगरबत्ती की खुशबू नाक सिकोड़-सिकोड़ कर अपने अंदर लेते ताकि उनका पैसा कुछ तो उनके काम आ ही जाये । उसेन आज ही सेठ जी से बोला था कि उनका हिसाब कर लिया जाये उन्हें पैसों की जरूरत है पर सेठ जी ने ‘‘हां…हां कर लेगें कहकर टाल दिया था उनकी इस बात को शर्मा जी जानते थे इसलिये उन्होन आज से ही कहना ष्रुरू कर दिया था ताकि दो तीन दिनों में उन्हें तनख्वाह मिल जाये । वे हमेशा से ऐसा ही करते हैं । पैसे उसके पास जरूर रहते हैं पर उन्हें खर्च करने की इजाजत सेठ जी लेनी पड़ती है । शर्मा जी को मालूम रहता है कि उनकी तनख्वाह के पैसे तिजोड़ी में हैं पर सेठ जी दो दिन तक टालेगें….दो दिन क्या यदि सेठ जी का वश चले तो कई-कई दिनों तक वे उन्हें तनख्वाह न दें । उन्हें पैसा नहीं मिला । शर्मा जी को इतनी जरूरत थी भी नहंी । उन्हें मालूम भी नहीं था कि लांकडाउन लगने वाला है नहीं तो वे जबरदस्ती पैसे ले लेते । अचानक लांकडाउन लग गया । वे अपने घर में कैद होकर रह गण् ।
रामकुमार शर्मा नाम है उनका पर पूरा नाम कोई नहीं जानता या तो उन्हें लोग मुनीम साब के पहचानते अथवा शर्मा जी के नाम से पुकारते । उन्हें तो खुद ही अपना नाम याद नहीं है । पर वे प्रसन्न हैं, प्रसन्न रहना ही तो उनकी दौलत है । उनके चेहरे पर कभी तनाव दिखाई नहीं देता जो मिल गया उसमें संतोष है और मिला तो मलाल नहीं । लांकडाउन लगा तो कुछ दिनों तक वे अनमने से रहे आए । लांकडाउन के कारण वे काम पर नहीं जा पा रहे थे । ऐसा उनके जीवन में कम ही होता है जब वे काम पर न जायें । परिवार में गमी बगैरह हो जाये तो भी वे तीन दिनों के बाद ही काम पर जाना प्रारंभ कर देते ‘‘अरे घर में मन ही नही लगता और भैया काम ज्यादा जरूरी है’’ उनके चेहरे पर संतोष के भाव उभर आते । पर लांकडाउन तो लम्बा है । उन्होने खुद टी.व्ही पर खुद प्रधानमंत्री को बोलते देखा और सुना था । कोराना फैल रहा था ‘‘होगा कोई बुखार टाइप का….अपन ने अच्छी-अच्दी बीमारियों को निपटा दिया है ये कोराना भी निपट जायेगा……’’ पर चेहरे पर मास्क लगाना शुरू कर दिया था । वैसे भी उनकी आदत गले में गमछा डाले रहने की शुरू से ही थी । उसी गमछे को वे मुंह पर ढांक लेते थे । वे बीड़ी नहीं पीते थे इसलिये कोई बीड़ी पीता उनके पास आ जाये तो वे अपना गमछा मुंह पर बांध लेते ताकि बदबू उनकी नाक में न भरा पाए । दुकान में तो भांति-भांति के लोग आते किसी का मुंह बदबू मार रहा है तो किसी के मुंह से शराब की बदबू आ रही है । गमछा उनकी मदद करता । मास्क भी उनके लिये बीमारी से कम बदबू से निपटने का बड़ा हथियार बन गया था । मास्क पहन लेने के बाद भी वे गमछा मुंह पर डाले रहते ।
रात को लौटते समय वे दुकान पर अपने सारे जरूरी कागज ऐसे ही रख आए थे । उन्हें दूसरे दिन बहुत सारे काम निपटाने थे तैयारी तो पूरी कर ली थी । पर लांकडाउन लग गया । कोरोना की चर्चा तो दुकान पर होती रहती थी पर लांकडाउन के बारे में वे कुछ नहीं जानते थे । प्रधानमंत्री जी ने बोला तो वे घबरा गए बगैर लांकडाउन को समझे घबरा गए । वे तो प्रधानमंत्री जी को टी.व्ही पर देखते ही घबरा जाते थे । एक बार ऐसे ही प्रधानमंत्री जी ने ‘‘अब ये नोट नहीं चलेंगें’’ कह कर उन्हें परेशान कर दिया था । उनके पास तो हजार-पांच सौ के नोट कम ही थे पर दुकान पर गडिढयों की गडिढयां रखी थीं । सेठ ने साफ बोल दिया ‘‘मुनीम साहब आप ही जानो …..मुझे तो अपना पूरा पैसा चाहिये…’’ । वे महिनों तक भटकते रहे थे नोटों को बदलवाने के लिये । जिस बैंक में उनकी फर्म का खाता है उस बैंक के मैनेजर ने बहुत मदद की थी इसलिये वे नोट बदल भी पाए थे । वे उस परेशानी को अभी तक नहीं भूले थे । इस बार भी जैसे ही उन्हेोने प्रधानमंत्री जी को बोलते सुना तो घबरा गए । प्रधानमंत्री जी ने लांकडाउन लगाया जाता है कहा तो वे और घबरा गए । उन्हें लगा कि लांकडाउन भी नोटबंदी जैसा कुछ है । उन्होने रात को ही सेठ जी को फोन लगा दिया था ।
‘‘ अब मुनीम साब मैं क्या जानूं कि ये लोकडाउन क्या होता है…आप मुनीम हैं आप ही समझ लें ’’
उनके बेट ने ही उन्हें समझाया कि लांकडाउन क्या है ‘‘पापा जैसे कफ्र्यू लगता है न वैसे ही लांकडाउन है कोई घर से नहीं निकल सकता…सब कुछ बंद हो जायेगा न तो दुकान खुलेगी और न ही बाजार खुलेगा……’’ । बेटा बड़ा नहीं था पर मुनीम साहब से ज्यादा होशियार जरूर था । वे चाहते भी यही थे कि उन्होने तो अपना सारा जीवन ऐसे ही रो-रो कर काट लिया पर बच्चे का जीवन ऐसे न कटे इसलिये उसे प्राइवेट अंग्रेजी स्कूल में पढ़ा रहे थे । वह था भी होशियार इसलिये मुनीम साहब को उस पर खर्च करने में कोई परेशानी नहीं होती थी । बेटे ने लांकडाउन का मतलब समझा दिया । मुनीम साहब चैंक गए ‘‘मतलब वे दुकान नहीं जा पायेगें…?’’ ।
‘‘अरे पापा…..दुकान तो छोड़ो आप तो घर से भी नहीं निकल पायेगें…..और पापा मैं भी स्कूल नहीं जा पाउंगा…..पर मेरी तो परीक्षा चल रही है…..अब मैं क्या करूं…’’ वह रोने लगा । शर्मा जी ने उसको रोता छोड़ अपनी चिन्ता में डूब गए । उन्होने रात को ही सेठ जी को फोन कर लांकडाउन का ,मतलब बता दिया और यह भी बता दिया कि अब दुकान नहीं खुल सकेगी ।
‘‘क्या……अरे ऐसा कैसे चलेगा……वो कुछ भी हो तुम तो दुकान पर आ ही जाना…..’’
‘‘नहीं आ सकता…..घर से निकलने की मनाही है……पुलिस वाले डंडा मारेगें……’’
‘‘मैं बात कर लूंगा….तुम तो आ जाना बहुत सारा काम पड़ा है…..’’
‘‘अच्छा ऐसा करना आप मुझे लेने आ जाना…मैं आपके साथ ही चलूंगा…..’’
शर्मा जी इतने चतुर नहीं थे पर गुस्से में उनकी चतुराई बाहर निकल आई थी । सेठ जी उनकी चतुराई को समझ गये थे ‘‘अच्छा मैं बताता हूॅ……’’ कहकर फोन काट दिया ।
शर्मा जी का लांकडाउन का पहला दिन तो केवल जिज्ञासा में कट गया ं वे अपने घर के दरवाजे से बाहर झांकते । बाहर सब कुछ बंद था । वे पुलिस की गाड़ियों को हार्न बजाकर घूमते देखते और सकपका जाते । वे बाहर निकले लोगों को पुलिस से मार खाते देखते और भयभीत हो जाते । सारा दिन उनका बाहर की ताक-झांक में कट गया । शर्मा जी बहुत दिनों बाद यूं घर में रूके थे । उन्होने सारा घर घूमा उन्हें लगा ‘‘अच्छा यह मेरा ही घर है’’ । घर तो उनका पैतृक था । दादाजी के बाद पिताजी और अब उनका कहलाता है । उन्होने अपने स्तर पर घर में कोई नया काम किया भी नहीं था ‘‘अब ठीक है चल तो रहा है’’ सोचकर काम को टाल देते । वे तो टायलेट प्रशासन की कड़ाई के कारण बनवा लिया था वरना वो भी पुराना ही चलता रहता । टायलेट बना तो नहानी भी दुरूस्त करा ली । उनके घर में उनके रहते केवल इतना ही काम हुआ है । उन्होने सारा घर घूम लिया फिर बाहर आकर बैठ गए । सामने चैराहे पर एक व्यक्ति को पुलिस वाले डंडों से मार रहे थे । उन्होने देखा और अपनी नजरें घुमा लीं । अब तो यह देखते ही रहना पड़ेगा । वे फिर घर के अंदर आ गये । टी.व्ही खोल लिया टी.व्ही में केवल कोरोना और लांकडाउन की खबरें ही चल रहीं थीं । घबराकर उन्होने उसे भी बंद कर दिया ।
शर्मा जी के लिये अब दिन काटने कठिन होते जा रहे थे । वे अनमने से रहने लगे थे । ‘‘आटा खत्म होने वाला है बस कुछ दिन और चलेगा’’ । पत्नी ने बोला तो वे और चिन्तित हो गए । उन्होने दो रोटी कम खाना शुरू का दिया ‘कुछ दिन और चल जायेगा आटा….फिर देखते हैं कुछ व्यवस्था करेगें । दोपहर को दूध वाला आ गया ‘‘पैसे चाहिये…’’ । उन्हें ध्यान आया कि उन्होने उसे पैसे तो अभी तक दिए ही नहीं उनकी आदत थी की महिना होते ही वे सभी के पैसे सबसे पहिले देते थे पर लांकडाउन के कारण न तो वो आया और न ही उन्होने दिये । वैसे तो उनको भी पैसे कहां मिले थे । उस दिन सेठ जी से बोला था तो उन्होने दो-तीन दिन का बोल दिया था । उसे भी जल्दी नहीं थी क्योंकि महिना पूरा होने में समय था । फिर लांकडाउन लग गया और वे पैसे ले ही नहीं पाये । उन्होने अपनी जेब टटोली कुछ पैसे थे…..। दूध वाले का काम तो चल गया पर यदि अब कोई आया तो……। उनके चेहरे पर परेशानी झलकने लगी । दूध वाले के बाद पैसे लेने और कोई नहीं आया । बरौनी को जरूर आ जाना चाहिये था । पर अच्छा हुआ कि वो नहीं आई उनके पास अब ज्यादा पैसा बचे ही नहीं हैं । वे समझ रहे थे कि निश्चित ही उनकी पत्नी अपनी समझदारी से घर का सामान उपयोग कर रही होगी नहीं तो अभी तक तो किराना खत्म हो जाना चाहिये था । वैसे भी वो ज्यादा समाान लाते नहीं थे पर इतना जरूर था कि पत्नी जितना सामान बोलती उसे पूरा ही लाते । वे जानते थे कि उनकी पत्नी भी कभी फालतू सामान के लिये नहीं बोलती है । पत्नी की समझदारी के कारण ही तो वे इतनी कम तनख्वाह में घर का खर्च चला पा रहे थे । उस पर बेटा महंगे स्कूल में पढ़ने भी जाता था । उन्होने गहरी सांस ली । बेटे का स्कूल बंद है नहीं तो उसके स्कूल से फीस के लिये तबादा आने लगते । पर वे मांगेगें जरूर प्राइवेट स्कूल वाले पाई-पाई वसूल लेते हैं और न दो तो बेेटे को परेशान करने लगते हैं ं । उसकी होमवर्क वाली कापी में लिखा आने लगता है ‘आप फीस जमा करें अन्यथा बेटे को स्कूल से निकाल दिया जायेगा’’ । बेटे को कभी परेशान न होना पड़े इसलिये वे सबसे पहिले उसकी ही फीस जमा करते फिर दूसरा काम करते । इस महिना लांकडाउन के कारण सारा कुछ अस्त-व्यस्त हो गया है । एक बार फिर से काम शुरू हो तो कुछ व्यवस्थित हो पाये पर जाने कब ऐसा होगा । उन्होने गहरी सांस ली ।
शर्मा जी को भरोसा था कि लांकडाउन 21 दिन बाद खत्म हो जायेगा ‘‘अब प्रधानमंत्री जी ने बोला है कि लांकडाउन केवल इक्कीस दिनों का ही होगा तो होगा ही प्रधानमंत्री जी कोई झूठ थोड़ी न बोलेगें’’ ऐसा सोचकर वह अपना मन समझाता । वह एक-एक कर दिन काट रहा था । आटा लगभग खत्म हो चुका था चांवल ज्यादा बनाये जाने लगे थे । सब्जी बनना बंद हो गई थी । एक तो वैसे भी सब्जी मिल ही नहीं रही थी दूसरे उनके पास सब्जी बनाने का सारा सामान खत्म हो चुका था । पत्नी ने दूध वाले से मही बुलवा लिया था उसी में नमक डालकर परोस रही थी । लांकडाउन 21 दिन बाद भी खत्म नहीं हुआ और बढ़ा दिया गया । प्रधानमंत्री जी फिर टी.व्ही. पर दिखे । उन्हें देखते ही उनकी धड़कनें बढ़ गई । उन्होने बता दिया कि कोरोना अभी थमा नहीं है बल्कि उसके पेशेन्ट और बढ़ रहे हैं इसलिये लांकडान और 15 दिनों के लिये बढ़ाया जा रहा है । उसके सामने अंधेरा छाने लगा । अब क्या होगा । अब तो पैसे भी नहीं हैं और सामान भी नहीं है । वह बहुत देर तक शून्य में देखता रहा । उसकी पत्नी भी परेशान हो उठी । वह भी एक एक दिन काट रही थी । अंदर के हालात तो वह ही जानती थी । रसोईघर में रखे सारे डिब्बे खाली हो चुके थे । उसने खुद कई दिनों से पेट भर खाना नहीं खाया था वह बनाती और बच्चों को खिलाती, पति को खिलाती तब तक खाना लगभग खत्म हो चुका होता तो वह गिलास भर पानी पीकर सो जाती । उसकी आंखों से आंसू बह निकले जिसे टी.व्ही में बोल रहे प्रधानमंत्री जी नहीं देख पाए बल्कि कोई भी नहीं देख पाया उसके पति तक नहीं देख पाए । पति-पत्नी दोनों रात भर अंधेरे में नींद का बहाना कर पड़े रहे ।
22 वे दिन की सुबह कुछ ज्यादा भयानक थी । यह वह सुबह थी जब शर्मा जी के सामने दो जून के खाने की व्यवस्था कर लेने की अहम जिम्मेदारी आ चुकी थी । अभी तक उनकी पत्नी ने इस जिम्मेदारी को उठाया था और वह जितना कर सकती थी उसने उतना किया भी अब उसके वश में कुछ नहीं रहा था । आज तो घर में चाय तक नहीं बनी थी । उन्होने पत्नी से इसका कारण पूछा भी नहीं वह समझ गए कि घर में न तो शक्कर होगी और न ही चायपत्ती वरना वो तो चाय दे ही देती । वे मुंह हाथ धोकर घर के सामने आकर बैठ गए । दोपहर तक बैठे रहे पर अंदर से ‘‘खाना खा लो’’ की आवाज नहीं आई । इसकी उन्हें उम्मीद भी थी । वे जानते थे कि आटा तो पहिले ही खत्म हो चुका है । सब्जी बन नहीं रही है मतलब तेल बगैरह भी खत्म हो चुका है चावल भी कितने दिन चलते हो सकता है कि वो भी खत्म हो गया हो । उनकी हिम्मत घ्रार के अंदर जाने की बिल्कुल नहीं हो रही थी । वे अंदर जायें और अंदर के कमरे में पत्नी का उदास चेहरा दिखे उसका वो सामना नहीं करना चाह रहे थे । वे बाहर ही बैठे रहे । बेटा जरूर एक रोटी हाथ में लिये उनके सामने से निकला था । उन्हें संतोष हुआ कि कम से कम बेटे को तो कुछ खाने को मिल ही गया । सारा कुछ सुनसान पड़ा था । सारा कुछ तो बंद था बहुत दिनों से बंद था अब आदत सी हो गई हैे सुनसान देखने की इतने दिन बहुत होते हैं । पर कुछ किराना दुकानें खुल रहीं हैं……यदि पैसे होते तो आटा तो ले ही आते । सेठ जी को तो सुबह ही फोन लगाया था उनका फोन तो बंद बता रहा था यदि बात हो जाती तो उनसे रूप्ये मांग लेता उनको देना पड़ते कोई हराम का थोड़े ही मांगता अपने ही पैसे लेने हैं उनसे वो ही मांगता और उतने ही मांगता इससे ज्यादा वो भी नहीं मांगता और मांग भी लेता तो सेठ जी देते भी नहीं पैसों के मामलों में वे बहुत कंजूस हैं और पैसों के ही क्यों वे तो हर मामालों में कंजूस ही हैं तभी तो उनके यहां कोई कर्मचारी टिकता नहींहै ये तो वही उनके यहां जमा है मालूम नहीं क्यों । पर सेठ जी का फोन तो लगा ही नहीं । यदि उन्होने इस मुसीबत के समय पैसे नहीं दिए तो वो भी काम छोड़ देगा उनका । वे बाहर बैठे बैठे अपने आप से ही सवाल जबाब कर रहे थे और करें भी क्या यदि कुछ न सोचो तो खाने की याद आ जाती है । सूरज की तेज तपन चारों ओर फैली थी । उन्हें गर्मी तो बहुत लग रहीथी पर वे घर के अदर नहीं जा रहे थे । बाहर चैराहे पर कुछ पुलिस वाले खड़े थे । ‘‘उन्होने खाना खा लिया होगा…’’ फिर गहरी सांस ली । कुछ लोग हाथ में थैला लिये उनके घर के सामने से निकले । उनमें से ही किसी ने आवाज लगाई ‘‘मुनीम साहब बाहर गर्मी लग रही होगी अंदर चले जाओ…….खाना खा लो…’’ । वे बल्किुल नहीं पहचान पाए
‘‘हां…..हां बस ऐसे ही बैठे हें……और आप लोगों ने कहां चल दिया….’’ उन्हें उत्सुकता तो हो ही रहा थी कि जब किसी को भी बाहर निकलने की परमीशीन नहीं है तब ये लोग भीड़ बनाकर कहां जा रहे हैं वो भी हाथों में थैला लिये ।
‘‘अरे कुछ नहीं हम लोग तो रोज ही गरीबों को खाना बांटने निकलते हैं आज कुछ लेट हो गये इसलिये आपको नजर आ गये……’’ कहते हुए वे लोग आगे बढ़ गए ।
‘‘खाना बांटने…….’’ उन्हें फिर खाना का ध्यान आ गया । अरे कम से कम मुझे भी एकाध पैकेट दे जाते मैं भी तो भूखां हूं…….। वे केवल सोचते रहे फिर उन्हें ध्यान आया कि उन्होने कहा था कि ‘‘गरीबों के लिये खाना कापैकेट बांटने जा रहे हैं….वे थोड़ी न गरीब हेंै……और मैं भला उनसे भोजन का पैकेट लेता भी क्या…….नहीं…नहीं बिल्कुल नहीं……’’ । उन्हें रह-रह कर भूख का अहसास हो रहा था । उन्हें अपनी पत्नी के भूखे होने का भी अहसास हो रहा था । उसने भी कुछ नहीं खाया होगा वो खा भी नहीं सकती सबसे पहिले तो मुझे खिलाती हे फिर खुद खाती है । वह भी भूखी होगी । उनका मन हुआ कि एक बार अंदर जाकर अपनी पत्नी से पूछ ले कि ‘‘तुमने कुछ खाया क्या’’ पर इससे क्या होगा वह कहेगी नहीं खाया तो वह क्या उत्तर देगा । वैसे तो वह अपनी पत्नी को जानता है कि उसने खाया नहीं होगा तब भी कह देगी ‘‘हां थोड़़ा सा खा लिया है’’ ऐसा वह अक्सर करती है । महिना पूरा होने को होता है तब घर में सामान कम हो ही जाता है तब उसका खाना अपने आप कम हो जाता हे । पहिले तो वह नहीं समझता था पर उस बार जब वह बीमार हुई तो उसने ही सारी पोल खोल दी थी । तब से वह सतर्क हो गया था वह अपनी पतनी से खाना खा लेने का प्रमाण मांगने लगा था । कई बार तो वह अपने सामने ही पत्नी को बिठाकर खाना खाने को मजबूर कर देता । वह अपनी पत्नी को चाहता बहुत था । उसने उसके हर अच्छे बुरे वक्त साथ दिया था । वह मौन रहकर उसकी मदद करती थी ।
कुछ ज्यादा ही गर्मी लगने लगी थी । शर्मा जी को अब बाहर बैठने में परेशान हो रही थी । मन मारकर वे अंदर आ गये । उनकी पत्नी अंदर एक चादर जमीन पर बिछाकर लेटी थी । उसने अपने चेहरे को अपनी साड़ी के पल्लू से ढंक रखा था । एक छोटा पंखा चल रहा था जिससे भी गर्म हवा ही रही थी । वैसे उनके घर में कूलर भी था पर लांकडाउन की उदासीनता के कारण कूलर को चालू करने का मन ही नहीं हुआ था । इसी पंखे की गर्म हवा में ही उनके दिन भी कट रहे थे और रात भी । उसका मन हुआ कि वो पत्नी को जगाकर बातें करें पर उनकी हिम्मत नहीं हुई । हो सकता हे कि वो वाकई सो रही हो और अपनी भूख को दबाने की कोशिश कर रही हो । वैसे उन्हे भरोसा था कि वो जाग ही रही होगी । वे चुपचाप कुर्सी पर आकर बैठ गए । वे एक टक सोती हुई पत्नी को देख रहे थे । वे उसके चेहरे की भावभंगिमा का अंदाजा लगा रहे थे । वे क्या करें ऐसा कब तक चेलगा । उन्हें लगा कि वे असहाय हो चुके हैं ।
शर्मा जी सुबह से ही द्वार पर आकर बैठ गए थे । वे उन लोगों का इंताजर कर रहे थे जो गरीबों को खाना बांटने रोज यहां से निकलते हैं । आज उन्होने तय कर लिया था कि वो उनसे खाना का पैकेट मांग ही लेगें । इस लांकडाउन में वे भी गरीब ही हो चुके हें । मध्यमवर्गीय हैं तो क्या जीवनभर बगैर काम के तो रह नहीं सकते । उनके घर भी खाना खत्म हो चुका है । वे कह देगें थोड़ी सी शर्म आयेगी पर इस शर्म से तो पेट भरता नहीं है । उनके चेहरे पर दृढ़ निश्चय दिखाई देने लगा था ं वे और उनकी पत्नी कल से भूखीं हैं सेठ जी का फोन लग नहीं रहा है एकाध दिन और देख लेते हैं फिर किराना वाले से सामान उधार ले लेगें वो दे देगा उन्हें भरोसा है ।
दोपहर होने का आ गई थी पर खाना बांटने वाले अभी तक नहीं निकले थे । शर्मा जी के माथे पर चिन्ता की लकीरें उभर आई । आज वे दिनभर भूख्े नहीं रह सकते उन्हें हर हाल में खाना चाहिये ही । उन्हाने बाहर का गेट खोल लिया । तेज धूप के थपेड़े उनके तन को झुलसाने लगे । वे इसकी फिक्र किये बगैर डटे रहे । उन्हें दूर से खाना बांटने वाला समूह आता दिखाई दे गया था । उसके पास आते-आते तक वे अपने उपरी बेशर्मी की चादर को मजबूत कर चुके थे ।
‘‘मुनीम साहब आज तो आप धूप में खड़े हैं….कोई परेशानी है क्या…..’’
‘‘मैं आप लोगों का ही इंताजर कर हा था…’’ उनके चेहरे पर पहली बार बेशर्मी ओढ़ने वाली लज्जा दिखाई दी ।
‘‘ अरे क्यों…….’’ शायद सामने वाले को आश्चर्य हुआ ।
‘‘मुझे खाने का पैकेट…….. चाहिये…..इसलिये…’’ उन्होने नजरें नहीं झुकाई
‘‘किसी को देना है क्या…..हम दे देते हैं आप बता दो….’’
मुनीम जी को जानने वाले को यही लगा । वह इससे अध्ािक सोच भी नहीं पारहा था ।
‘‘नहीं …..भाई……मुझे ही चाहिये……..अ…प…ने…..लिये’’ न चाहते हुए भी शर्मा जी को अपनी निगाहें झुका लेनी पड़ीं ।
‘‘आपके लिये………’’ सभी को सहसा विश्वास नहीं हुआ होगा ।
‘‘हाॅ भाई…..हमारे लिये ही……..’’ । शर्मा जी इससे ज्यादा कुछ नहीं बोल पाये । उनकी आंखों से आंसू बह निकले जो सभी को दिखाई दे गये । वे खामोश रहे । उन्होने अपने थैले से चार पैकेट निकालकर शर्मा जी की ओर बढ़ा दिये । उन्होने खामोशी के साथ पैकेट अपने हाथों में पकड़ लिये
‘‘ शर्मा जी आप चिन्ता मत करो……..हम आपको रोज पैकेट दे दिया करेगें……’’
समूह जा चुका था । शर्मा जी अपने हाथों में खाने के पैकेट लिये अपना द्वार बंद कर रहे थे ।
कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर म.प्र.